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भगवती सूत्र-श. १८ उ. ८ अन्यतीथियों से गौतम स्वामी का वाद
तए णं ते अण्णउत्थिया जेणेव भगवं गोयमे तेणेव उवागच्छंति, उवा. गच्छित्ता भगवं गोयमं एवं वयासी-'तुम्भे णं अजो ! तिविहं तिविहेणं असंजया जाव एगंतवाला यावि भवह ।'
३-तए णं भगवं गोयमे अण्णउत्थिए एवं वयासी-'से केणं कारणेणं अजो ! अम्हे तिविहं तिविहेणं असंजया जाव एगंतबाला यावि भवामो ।' तए णं ते अण्णउत्थिया भगवं गोयमं एवं वयासी'तुम्भे णं अजो ! रीयं रीयमाणा पाणे पेच्चेह, अभिहणह, जाव उवदवेह, तए णं तुझे पाणे पेञ्चेमाणा जाव उवद्दवेमाणा तिविहंतिविहेणं जाव एगंतवाला यावि भवह ।'
कठिन शब्दार्थ-पेच्चेह-दबाते हुए, कुचलते हुए।
भावार्थ-२-उस काल उस समय में राजगृह नामक नगर, यावत् पृथ्वीशिलापट्ट था। उस गुणशील उद्यान के समीप बहुत-से अन्यतीथिक रहते थे। अन्यदा किसी समय श्रमण भगवान महावीर स्वामी वहाँ पधारे, यावत् परिषद् वन्दना कर चली गई । उस काल उस समय में श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के ज्येष्ठ अन्तेवासी इन्द्रभूति अनगार यावत् ऊर्ध्व जानु (दोनों घुटने ऊंचे कर के)तप संयम से आत्मा को भावित करते हुए विचरते थे। उस समय वे अन्यतीथिक गौतम स्वामी के समीप आ कर कहने लगे कि-'हे आर्यों ! तुम त्रिविध-त्रिविध (तीन करण, तीन योग से) असंयत, अविरत यावत् एकान्त बाल हो।'
३-अन्य यूथिकों का आक्षेप सुन कर गौतम स्वामी ने कहा-'हे आर्यो ! किस कारण हम विविध-त्रिविध असंयत यावत् एकान्त बाल हैं ? तब अन्यतीथिकों ने कहा-'हे आर्य ! गमन करते हुए तुम जीवों को आक्रान्त
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