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भगवती सूत्र-श. १८ उ. ८ अन्यतीथियों से गौतम स्वामी का वाद
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'हे भगवन् ! सामने और दोनों ओर युगमात्र (धूसरा प्रमाण) भूमि को देख कर गमन करते हुए भावितात्मा अनगार के पाँव के नीचे मुर्गो का बच्चा, बतख का बच्चा या कुलिंगच्छाय (चींटी जैसा सूक्ष्म जन्तु) आ कर मर जाय, तो हे भगवन् ! उस अनगार को ऐर्यापथिकी क्रिया लगती है या साम्परायिकी क्रिया लगती है ?
१ उत्तर-हे गौतम ! उस भावितात्मा अनगार कों यावत् ऐपिथिको क्रिया लगती है, साम्परायिकी क्रिया नहीं लगती।
प्रश्न-हे भगवन् ! उसे यावत् साम्परायिकी क्रिया क्यों नहीं लगती ?
उत्तर-हे गौतम ! सातवें शतक के प्रथम संवत उद्देशक के अनुसार जानना चाहिये, यावत् अर्थ का निक्षेप (निगमन) करना चाहिये।
_ 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है। हे भगवन् ! यह इसी प्रकार हैऐसा कह कर यावत् विचरते हैं। तत्पश्चात् श्रमण भगवान् महावीर स्वामी बाहर के जनपद में विचरते हैं।
विवेचन-जिस भावितात्मा अनगार के क्रोधादि कषाय नष्ट हो गया है, उसे ऐर्यापथिको क्रिया ही लगती हैं, साम्परायिकी क्रिया नहीं लगती । क्योंकि साम्परायिकी क्रिया सकषायी जीवों को ही लगती है अकषायी को नहीं ।
'अन्यतीर्थियों से गौतम स्वामी का वाद
२-तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे जाव पुढविसिलापट्टए, तस्स णं गुणसिलस्स चेइयस्स अदूरसामंते वहवे अण्णउत्थिया परिवसंति । तए णं समणे भगवं महावीरे जाव समोसढे, जाव परिसा पडिगया । तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स जेठे अंतेवासी इंदभूई णामं अणगारे जाव उड्ढंजाणू जाव विहरइ।
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