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भगवती सूत्र-श. १९ उ. ३ अपकायादि के साधारण शरीरादि
अपकायिक जीव मिल कर एक साधारण शरीर बांधते हैं और इसके पश्चात् आहार करते हैं ?
१७ उत्तर-हे गौतम ! पृथ्वीकायिकों के विषय में जैसा कहा गया है, वैसा ही यहां भी-उद्वर्तना द्वार तक जानना चाहिये । विशेष में अपकायिक जीवों की स्थिति उत्कृष्ट सात हजार वर्ष की है। शेष सब पूर्ववत् ।
१८ प्रश्न-हे भगवन् ! कदाचित् दो, तीन, चार या पांच आदि अग्निकायिक जीव इकट्ठे हो कर एक साधारण शरीर बांधते हैं, इत्यादि ? .:
१८ उत्तर-हे गौतम ! पूर्ववत् । विशेष यह कि उनका उत्पाद, स्थिति और उद्वर्तना प्रज्ञापना सूत्र के अनुसार जानना चाहिये । शेष सब पूर्ववत् । वायुकायिक जीवों का कथन भी इसी प्रकार है, परन्तु उनमें समुद्घात चार होती है।
१९ प्रश्न-हे भगवन् ! कदाचित् दो, तीन, चार या पांच आदि वनस्पतिकायिक जीव इकट्ठे हो कर एक साधारण शरीर बांधते हैं, इत्यादि ?
१९ उत्तर-हे गौतम.! यह अर्थ समर्थ नहीं है । अनन्त वनस्पतिकायिक जीव मिलकर एक साधारण शरीर बांधते हैं, फिर आहार करते हैं और परिणमाते हैं, इत्यादि सब अग्निकायिकों के समान यावत् - 'उद्वर्तते हैं-तक । विशेष यह कि उनका आहार नियमतः छह दिशा का होता है । उनको जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति अन्तर्मुहर्त की है। शेष सब पूर्ववत् ।
विवेचन-अग्निकायिक जीव, तियंच और मनुष्य में से ही आ कर उत्पन्न होते हैं । उनकी स्थिति उत्कृष्ट तीन अहोरात्र की होती है । अग्निकाय से निकल कर जीव तिर्यचों में ही उत्पन्न होते हैं । लेश्या की अपेक्षा भी उनमें विशेषता है । पृथ्वीकायिक जावों में चार लेश्या होती हैं और अग्निकायिक तथा वायुकायिक जीवों में तीन लेश्या होती हैं। वायुकायिक जीवों में वैक्रिय समुद्घात अधिक होने से चार समुद्घात होती हैं।
सूक्ष्म वनस्पतिकायिक जीव लोकान्त के निष्कूटों (कोणों) में भी होते हैं । उनके तीन, चार, गा पांच दिशाओं का आहार भी सम्भवित है, किन्तु यहाँ वनस्पतिकायिक
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