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भगवती मूत्र-श. १६ उ. ८ जीव-निवृनि आदि
एकेन्द्रिय-जीव-निर्वत्ति और बादरपृथ्वीकायिक एकेन्द्रिय जीव-निर्वृत्ति । इस अभिलाप द्वारा आठवें शतक के नौवें उद्देशक में बहद बन्धाधिकार में कथित तेजस-शरीर के भेदों के समान यहाँ भी जानना चाहिये, यावत्
प्रश्न-हे भगवन् ! सर्वार्थसिद्ध अनुत्तरोपपातिक वैगानिक देव पञ्चेन्द्रिय जीव-निर्वति कितने प्रकार की कही गई है ?
उत्तर-हे गौतम ! दो प्रकार की कही गई है । यथा-पर्याप्त सर्वार्थसिद्धअनुत्तरौपपातिक वैमानिक देव पञ्चेन्द्रिय जीव-निर्वृत्ति और अपर्याप्त सर्वार्थसिद्ध अनुत्तरौपपातिक वैमानिक देव पञ्चेन्द्रिय जीव-निर्वति। '
विवेचन-निर्वृत्ति का अर्थ है- रचना, निष्पत्ति अर्थात् बनावट की पूर्णता । यहाँ पर जीव-निर्वृत्ति आदि का वर्णन किया गया है । जो भावार्थ से ही स्पष्ट है ।
४ प्रश्न-कइविहा णं भंते ! कम्मणिवत्ती पण्णता ?
४ उत्तर-गोयमा ! अट्टविहा कम्मणिव्वत्ती पण्णत्ता, तं जहाणाणावरणिजकम्मणिवत्ती जाव अंतराइयकम्मणिवत्ती।
५ प्रश्न-णेरइयाणं भंते ! कइविहा कम्मणिवत्ती पण्णता ?
५ उत्तर-गोयमा ! अट्टविहा कम्मणिवत्ती पण्णत्ता, तं जहाणाणावरणिजकम्मणिव्यत्ती जाव अंतराइयकम्मणिव्वत्ती, एवं जाव वेमाणियाणं ।
भावार्थ-४ प्रश्न-हे भगवन् ! कर्म-निवृत्ति कितने प्रकार की कही गई है ?
४ उत्तर-हे गौतम ! कर्म-निर्वृत्ति आठ प्रकार की कही गई है । यथाज्ञानावरणीय कर्म-निर्वृत्ति यावत् अन्तराय कर्म-निवृत्ति ।
५ प्रश्न-हे भगवन् ! नैरयिक जीवों के कितने प्रकार की कर्म-निर्वृत्ति कही गई है ?
५ उत्तर-हे गौतम ! आठ प्रकार की कर्म-निवृत्ति कही गई है । यथा
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