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भगवती सूत्र-श. २० उ. ५ विकलेन्द्रिय के साधारण-गरीरादि
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- ३ उत्तर-णो इणटे समढे, पडिसंवेएंति पुण ते । ठिई जहण्णेणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेणं वारस-संवच्छराई, सेसं तं चेव, एवं तेइंदिया वि, एवं चरिंदिया वि, णाणत्तं इंदिएमु ठिईए य, सेसं तं चेव, ठिई जहा पण्णवणाए।
कठिन शब्दार्थ--णाणत्तं-- नानात्व (भेद), इटाणिठे--इप्ट-अनिष्ट । भावार्थ-१ प्रश्न-राजगृह नगर में गौतम स्वामी ने यावत् इस प्रकार
पूछा
हे भगवन ! कदाचित दो, तीन, चार या पांच बेइन्द्रिय जीव मिल कर एक साधारण-शरीर बांधते हैं, इसके पश्चात् आहार करते हैं, आहार परिणमाते हैं और इसके पश्चात् विशिष्ट शरीर बांधते हैं ?
१ उत्तर-हे गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है। क्योंकि बेइन्द्रिय जीव पृथक्-पृथक् आहार करने वाले और उसका भिन्न-भिन्न परिणमन करने वाले होते हैं । इसलिये वे पृथक्-पृथक् शरीर बांधते हैं, फिर आहार करते हैं, उसे परिणमाते हैं और विशिष्ट शरीर बांधते हैं।
२ प्रश्न-हे भगवन् ! बेइन्द्रिय जीवों के कितनी लेश्याएँ कही गई हैं ? - २ उत्तर-हे गौतम ! तीन लेश्याएँ कही गई हैं। यथा-कृष्णलेश्या, नीललेश्या और कापोतलेश्या। उन्नीसवें शतक के तीसरे उद्देशक में वणित अग्निकायिक जीवों के विषय में जो कहा गया है, उसी प्रकार यहाँ भी यावत् 'उद्वर्तते' है, तक जानना चाहिये । विशेष यह है कि बेइन्द्रिय जीव सम्यगदृष्टि भी होते हैं और मिथ्यादृष्टि भी होते हैं, परन्तु सम्यमिथ्यादृष्टि नहीं होते। उनके अवश्य दो ज्ञान या दो अज्ञान होते हैं। उनके मनोयोग नहीं होता, वचनयोग और काययोग होते हैं । वे अवश्य छह दिशा का आहार लेते हैं।
३ प्रश्न-हे भगवन् ! उन जीवों को हम 'इष्ट और अनिष्ट रस का तथा इष्ट और अनिष्ट स्पर्श का अनुभव करते हैं'-ऐसी संज्ञा, प्रज्ञा, मन या
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