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भगवती सूत्र-श. १९ उ. ३ पृथ्वीकाय में समुद्घातादि
सिय-लेस-दिट्ठि-गाणे, जोगवओगे तहा किमाहारो।
पाणाइवाय-उप्पाय-ठिई, समुग्घाय-उन्चट्टो ।। अर्थ-१ स्याद् द्वार, २ लेश्या, ३ दृष्टि, ४ ज्ञान, ५ योग, ६ उपयोग, ७ किमाहार, ८ प्राणातिपात, ९ उत्पाद, १० स्थिति, ११ समुद्घात और १२ उद्वर्तना द्वार।।
ये बारह द्वार पृथ्वीकायिक से ले कर वनस्पतिकायिक जीवों तक कहे गये हैं।
पहला प्रश्न स्याद् द्वार की अपेक्षा किया गया है कि क्या कदाचित् अनेक पृथ्वीकायिक जीव मिल कर साधारण शरीर बांधते हैं और बाद में आहार करते हैं, तथा उसका परिणमन करते हैं और फिर' शरीर का विशेष बन्ध करते हैं ? सामान्य रूप से सभी संसारी जीव प्रति समय निरन्तर आहार (पुद्गल) ग्रहण करते हैं । इसलिये प्रथम : सामान्य शरीर बन्ध के समय भी आहार तो चालू ही है तथापि पहले शरीर बांधने का और पीछे आहार करने का जो प्रश्न किया गया है, वह विशेष आहार की अपेक्षा से जानना चाहिये । जीव उत्पत्ति के समय में प्रथम 'ओज' आहार करता है, फिर शरीर स्पर्श द्वारा 'लोम' आहार करता है, तदुपरान्त उसे परिणमाता है और उसके बाद विशेषविशेष शरीर बन्ध करता है । यह प्रश्न है ।
___उत्तर में कहा गया है कि पृथ्वीकायिक जीव, पृथक्-पृथक् आहार करते हैं और पृथक् परिणमाते हैं । इसलिये वे शरीर भी पृथक्-पृथक् ही बांधते हैं । वे साधारण शरीर नहीं बांधते । इसके बाद वे विशेष आहार, विशेष परिणाम और विशेष शरीर-बन्ध करते हैं।
पृथ्वीकायिक जीवों में संज्ञा (व्यावहारिक अर्थ ग्रहण करने वाली अवग्रह रूप बुद्धि), प्रज्ञा (सूक्ष्म अर्थ को विषय करने बाली बुद्धि), मन और वचन नहीं होता । इसलिये वे परस्पर इस भेद को नहीं समझते हैं कि हम वध्य (मारे जाने वाले) हैं और ये वधिक (मारने वाले) हैं । परन्तु उनमें परस्पर प्राणातिपात क्रिया अवश्य होती है।
पृथ्वीकायिक जीवों के आहार के विषय में प्रज्ञापना सूत्र के अट्ठाईसवें पद के प्रथम उद्देशक का अतिदेश किया गया है । क्षेत्र से वे असंख्यात प्रदेशों में रहे हुए, काल मे जघन्य मध्यम या उत्कृष्ट काल की स्थिति वाले और भाव से वर्ण, गन्ध, रस तथा स्पर्श वाले पुद्गल स्कन्धों का आहार करते हैं।
पृथ्वीकायिक आदि जीवों में वचनादि का अभाव है, तथापि मषावाद आदि की अविरति के कारण वे मृषावाद आदि में रहे हुए हैं-ऐसा जानना चाहिये ।
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