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भगवती मूत्र-स. १८ उ. १० मोमिल ब्राह्मण का भगववंदन
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माणे सुहंसुहेणं जाव इहमागए जाव दूइपलासए चेइए अहापडिरूवं जाव विहरइ । तं गच्छामि णं समणस्स णायपुत्तस्स अंतियं पाउब्भवामि, इमाइं च णं एयारूपाइं अट्ठाई जाव वागरणाइं पुच्छिस्सामि, तं जड़ मे से इमाइं एयारूवाइं अट्ठाई.जाव वागरणाई वागरेहिइ तओ 'णं वंदीहामि णमंसीहामि जाव पज्जुवासीहामि । अह मे से इमाई अट्ठाई जाव वागरणाई णो वागरेहिइ तो णं एएहिं चेव अटेहि य जाव वागरणेहि य णिप्पट्टपसिणवागरणं करेस्सामि' त्ति कटु एवं संपेहेह, संपेहेत्ता बहाए जाव सरीरे साओ गिहाओ पडिणिक्खमइ, पडिणिक्खमिता पायविहारचारेणं एगेणं खंडियसएणं सदिध संपरिबुडे वाणियमामं णयरं मन्झमझेणं णिग्गच्छइ, णिग्गच्छित्ता जेणेव दुइपलासए चेहए जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छिता समणस्स भगवओ महावीरस्स अदूरसामंते ठिचा समणं भगवं महावीरं एवं वयासी
कठिन शब्दार्थ-णिप्पट्टपसिणवागरणं-प्रश्न का वैसा उत्तर कि जिम में पुनः पूछना नहीं पड़े।
भावार्थ-७ उस काल उस समय में वाणिज्य ग्राम नामक नगर और युतिपलास नामक उद्यान था। (वर्णन) । वाणिज्य ग्राम नगर में सोमिल नामक ब्राह्मण रहता था। वह आढय यावत् अपरामत था और ऋग्वेद, यावत् ब्राह्मणों के शास्त्रों में कुशल था। उसके पांच सौ शिष्य थे। वह अपने कुटुम्ब पर अधिपतिपना करता हुआ यावत् रहता था।
किसी दिन श्रमण भगवान महावीर स्वामी वाणिज्य प्राम के दयुतिपलास
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