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भगवती सूत्र-श. १८ उ. भव्यद्रव्य नैरयिकादि
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को कही गई है। इस प्रकार यावत् स्तनितकुमारों तक जानना चाहिये ।
५ प्रश्न-हे भगवन् ! भव्य-द्रव्य पृथ्वीकायिक को स्थिति कितनी कही गई है ?
__ ५ उत्तर-हे गौतम ! जघन्य अन्तर्महर्त और उत्कृष्ट कुछ अधिक हो सागरोपम की कही गई है। इस प्रकार अपकायिक के विषय में भी कहना चाहिये । भव्य-द्रव्य अग्निकायिक और भव्य-द्रव्य वायकायिक का विषय नैरयिक के समान है। वनस्पतिकायिक का विषय पृथ्वी कायिक के समान है। भव्य-द्रव्य बेइन्द्रिय, तेइन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय की स्थिति नैरयिक के समान है। भव्यद्रव्य पञ्चेन्द्रिय तिर्यच-योनिक की स्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट तेतीस सागरोपम की है। इसी प्रकार मनुष्य के विषय में भी जानना चाहिये । वाणव्यन्तर, ज्योतिषो और वैमानिकों का विषय असुरकुमारों के समान है।
हे भगवन ! यह इसी प्रकार है । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है-ऐसा कह कर गौतम स्वामी यावत् विचरते हैं।
विवेचन-जो संज्ञी या असंज्ञी अन्तर्मुहूर्त की आयुष्य वाला जीव मर कर नरकगति में जाने वाला है, उसकी अपेक्षा भव्य-द्रव्य नरयिक की जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त की कही गई है और उत्कृष्ट करोड़ पूर्व वर्ष की आयुष्य वाला जीव मर कर नरक गति में जावे, उसकी अपेक्षा से उत्कृष्ट स्थिति करोड़ पूर्व वर्ष की कही गई है।
जघन्य अन्तर्मुहूर्त की आयुष्य वाले मनुष्य अथवा तिथंच पचेन्द्रिय की अपेक्षा । भव्य-द्रव्य असुरंकुमारादि की जघन्य स्थिति जाननी चाहिये और देवकुरु उत्तरकुरु के . युगलिक मनुष्य की अपेक्षा तीन पल्योपम की उत्कृष्ट स्थिति जाननी चाहिये ।
____ भव्य-द्रव्य पृथ्वीकायिक को उत्कृष्ट स्थिति ईशान देवलोक की अपेक्षा साधिक दो सागरोपम है।
____ भव्य-द्रव्य अग्निकायिक और वायुकायिक की जघन्य स्थिति अन्तर्मुहर्त की और उत्कृष्ट करोड़ पूर्व वर्ष की है, क्योंकि देव और युगलिक मनुष्य, अग्निकाय और वायुकाय में उत्पन्न नहीं होते है।
भव्य-द्रव्य पंचेन्द्रिय तिर्यंच की तेतीस सागरोपम की स्थिति सातवीं नरक के नैर
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