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२६९४ भगवती सूत्र - श. १० उ. ४ पाप की प्रवृत्ति निवृत्ति और जोब - भोग
उत्तर - हे गौतम! प्राणातिपात यावत् मिथ्यादर्शन शल्य पृथ्वीकायिक यावत् वनस्पतिकायिक और सभी स्थूलाकार कलेवरधारी बेइन्द्रियादि जीव, ये सब मिल कर जीव द्रव्य रूप और अजीव द्रव्य रूप- दो प्रकार के हैं । ये सब जीव के परिभोग में आते हैं । प्राणातिपात विरमण यावत् मिथ्यादर्शन- शल्य विवेक धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय यावत् परमाणु- पुद्गल तथा शैलेशी अवस्था प्राप्त अनगार, ये सब मिलकर जीव द्रव्य रूप और अजीवद्रव्य रूप- दो प्रकार के हैं । ये सब जीव के परिभोग में नहीं आते। इस कारण ऐसा कहा गया है कि 'कोई द्रव्य परिभोग में आते हैं और कोई द्रव्य परिभोग में नहीं आते।'
२ प्रश्न - हे भगवन् ! कषाय कितने प्रकार का कहा गया है ?
२ उत्तर - हे गौतम! कषाय के चार प्रकार कहे गये हैं । यहाँ प्रज्ञापना सूत्र का चौदहवाँ कषायपद समग्र यावत् लोभ के वेदन द्वारा आठ कर्म प्रकृतियों की निर्जरा करेंगे - तक कहना चाहिये ।
विवेचन - प्राणातिपात आदि अठारह पाप और इन अठारह पापों का त्याग, पृथ्वीकाय आदि पाँच स्थावर, धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, अशरीरी जीव, परमाणु पुद्गल, शैलेशी अवस्था को प्राप्त अनगार, स्थूल आकार वाले त्रस कलेवर (बेइंद्रियादि) । ये ४८ द्रव्य सामान्य रूप से दो प्रकार के कहे गये हैं। इनमें से कितने ही जीव रूप हैं और कितने ही अजीव रूप हैं, किन्तु प्रत्येक के दो भेद नहीं हैं। इनमें से पृथ्वीकायिकादि जीव द्रव्य हैं और धर्मास्तिकायादि अजीव द्रव्य हैं । प्राणातिपातादि अशुद्ध स्वभावरूप और प्राणातिपात विरमणादि शुद्ध स्वभावरूप जीव के धर्म हैं। इसलिए ये जीव रूप कहे जा सकते हैं । जब जीव प्राणातिपातादि का सेवन करता है, तब चारित्रमोहनीय कर्म उदय में आता है । उसके द्वारा प्राणातिपातादि जीव के परिभोग में आते हैं। पृथ्वी कांयिकादि का परिभोग तो गमन-शौचादि द्वारा स्पष्ट ही है । प्राणातिपात विरमणादि जीव के शुद्ध स्वभाव रूप होने से चारित्रमोहनीय कर्म के उदय के हेतु भूत नहीं होते । इसलिए बे जीव के परिभोग में नहीं आते । धर्मास्तिकायादि चार द्रव्य अमूर्त हैं और परमाणु सूक्ष्म हैं, तथा शैलेशी प्राप्त अनगार उपदेशादि द्वारा प्रेरणादि नहीं करते । इसलिए ये जीव के परिभोग में नहीं आते । तात्पर्य यह है कि इन ४८ में से २४ ( अठारह पाप, पाँच स्थावर और
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