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भगवती मूत्र-स. १८ उ. ४ पाप की प्रवृत्ति-निवृत्ति और जीव-भोग
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जीवदव्वा य अजीवदव्या य जीवाणं परिभोगत्ताए हव्वमागच्छंति । पाणाइवायवेरमणे जाव मिच्छादंसणसल्लविवेगे, धम्मस्थिकाए, अधम्मत्थिकाए जाव परमाणुपोग्गले सेलेसिं पडिवण्णए अणगारे एए णं दुविहा जीवदव्वा य अजीवदव्या य जीवाणं परिभोगत्ताए णो हव्वमागच्छंति, से तेणट्टेणं जाव णो हव्वमागच्छंति ।
२ प्रश्न-कइ णं भंते ! कसाया पण्णत्ता ? ।।
२ उत्तर-गोयमा ! चत्तारि कसाया पण्णत्ता, तं जहा-कसायपयं णिरवसेसं भाणियव्वं जाव 'णिजरिस्संति लोभेणं ।'
कठिन शब्दार्थ-बायर बोंदिधरा-स्थूल शरीरधारी, कलेवरा-शरीर, अत्थेगइयाकुछ।
भावार्थ-१ प्रश्न-उस काल उस समय राजगृह नगर में यावत् गौतम स्वामी ने पूछा
हे भगवन् ! प्राणातिपात, मृषावाद, यावत् मिथ्यादर्शन-शल्य और प्राणातिपात विरमण, मषावाद विरमग यावत् मिथ्यादर्शन-शल्य विवेक (त्याग) तथा पृथ्वीकायिक यावत् वनस्पतिकायिक, धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, शरीर रहित जीव, परमाणु-पुद्गल शैलेशी अवस्था प्राप्त अनगार, और स्थूलाकार वाले सभी कलेवर, ये सब मिल कर दो प्रकार के हैं। इनमें से कुछ जीव-द्रव्य रूप हैं और कुछ अजीव-द्रव्य रूप हैं, तो हे भगवन् ! ये सभी जीव के परिभोग में आते हैं ?
१ उत्तर-हे गौतम ! प्राणातिपातादि जीव-द्रव्य रूप और अजीव द्रव्य रूप हैं। इनमें से कुछ तो जीव के परिभोग में आते हैं और कुछ नहीं आते।
प्रश्न-हे भगवन् ! किस कारण ऐसा कहा गया कि प्राणातिपातादि यावत् कुछ तो जीव के परिभोग में आते हैं और कुछ नहीं आते ?
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