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भगवती सूत्र - १८ उ ७ मद्रुक की मुक्ति का निर्णय २७२७
उसी नगर में मदुक नामक एक धनाढ्य श्रावक रहता था । भगवान् महावीर स्वामी का आगमन जान कर वह भगवान् के दर्शनार्थ जाने लगा। उसे उन अन्यतथियों ने देखा और उसके समीप आ कर अपनी चर्चा का विषय सुना कर पूछा- 'तुम्हारे धर्मोपदेशक, धर्माचार्य श्रमण ज्ञातपुत्र, धर्मास्तिकायादि पाँच अस्तिकाय की प्ररूपणा करते हैं, किन्तु यह अदृश्य एवं असम्भव मत कैसे माना जा सकता है ? क्या तुम धर्मास्तिकायादि को जानते-देखते हो ?
मद्रुक ने उनको उत्तर दिया कि कोई पदार्थ, कुछ कार्य करे तो हम उसे उम कार्य के द्वारा जान सकते हैं । जो कुछ भी कार्य नहीं करे और निष्क्रिय हो, तो उसे नहीं जान सकते। मद्रुक की यह बात सुन कर अन्यतीर्थियों ने उपालम्भपूर्वक कहा - 'तुम श्रमणोपासक हुए और तुम्हें धर्मास्तिकायादि का भी ज्ञान नहीं है ?"
मद्रुक ' ने उन अन्यतीर्थियों को उत्तर देते हुए कहा- 'वायु बहती है, यह बराबर है, परन्तु क्या तुम वायु को जान देख सकते हो ? गन्ध वाले पुद्गल हैं, अरणी में अग्नि है। समुद्र के उस पार अनेक पदार्थ हैं, देवलोक में अनेक पदार्थ हैं, क्या तुम उन सभी को जानते-देखते हो ?' अन्यतीर्थियों ने कहा कि - 'हे मद्रक ! हम इन्हें नहीं जानते ।' तब मद्रुक ने कहा- 'छद्मस्थ मनुष्य जिन पदार्थों को नहीं जानता, नहीं देखता है, यदि उनको नहीं माना जाय, तो संसार में बहुत से पदार्थों का अभाव हो जायगा । इसलिये छद्मस्थ धर्मास्तिकायादि को नहीं जानता, नहीं देखता है, इतने मात्र से उनका अभाव सिद्ध नहीं हो जाता ।' ऐसा कह कर मद्रुक ने उनको निरुत्तर कर दिया । अन्य-तीर्थियों को निरुत्तर कर के मद्रुक भगवान् की सेवा में गया, यावत् भगवान् ने कहा- ' 'हे मद्रुक " तुमने अन्यतीर्थियों को ठीक और यथार्थ उत्तर दिया है।'
मदुक की मुक्ति का निर्णय
१७ प्रश्न- 'भंते!' त्ति भगवं गोयमे समणं भगवं महावीरं वंदड़ णमंसह, वंदित्ता णमंसित्ता एवं वयासी - पभूणं भंते ! मद्दुए समणोवासर देवाणुप्पियाणं अतियं जाव पव्वत्तए ?
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