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भगवती सूत्र-श. १८ उ. ३ पाप-कर्म में भेद
भावार्थ-१९ प्रश्न-हे भगवन् ! नैरयिक, जिन पुद्गलों को आहारपने ग्रहण करते हैं, तो भविष्यत्काल में उन पुदगलों का कितना भाग आहार रूप से गृहीत होता है और कितना भाग निर्जरता है।
१९ उत्तर-हे माकन्दिक पुत्र ! आहारपने ग्रहण किये हुए पुद्गलों का असंख्यातवां भाग आहार रूप से गृहीत होता है और अनन्तवां भाग निर्जरता है।
२० प्रश्न-हे भगवन् ! कोई पुरुष इन निर्जरा के पुद्गलों पर बैठने यावत् सोने में समर्थ है ?
२० उत्तर-हे माकन्दिक-पुत्र ! यह अर्थ समर्थ नहीं है । हे आयुष्यमन् श्रमण ! निर्जरा के ये पुद्गल अनाधार रूप कहे गये है। वे कुछ भी धारण करने में समर्थ नहीं हैं । इस प्रकार यावत् वैमानिक तक कहना चाहिए।
हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है। हे भगवन् ! यह इसी प्रकार हैऐसा कह कर गौतम स्वामी यावत् विचरते है।
विवेचन-जैसे किसी पुरुष द्वारा आकाश में ऊँचे फेंके हुए बाण के कम्पन में उसके प्रयत्न की विशेषता से भेद होता है, उसी प्रकार पुरुष द्वारा किये हुए भूत, वर्तमान और भविष्यत्काल के कर्मों में भी तीव्र-मन्दादि परिणाम के भेद से भिन्नता होती है।
निर्जरा किये हुए पुद्गल आधार रूप नहीं होते । इसलिये वे किसी भी वस्तु को धारण करने में समर्थ नहीं हैं।
॥ इति अठारहवें शतक का तृतीय उद्देशक सम्पूर्ण ॥
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