Book Title: Anandrushi Abhinandan Granth
Author(s): Vijaymuni Shastri, Devendramuni
Publisher: Maharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
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ज्योतिर्धर आचार्य श्री आनन्दऋषि : जीवन दर्शन
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भाव से बोले-"भगवन् ! मैं तेरह वर्ष की ही आयु का हूँ तो क्या हुआ? सुना है कि स्वयं आपने तो मात्र बारह वर्ष की अल्पायु में ही यह मार्ग अपना लिया था। इस प्रकार जब कि आप बारह वर्ष की वय में ही दीक्षित हो चुके थे तो मेरी आयु तो एक वर्ष अधिक ही है। फिर मैं साधना-पथ पर क्यों नहीं चल सकंगा?"
गुरुदेव फिर क्या उत्तर देते । उन्हें तो मूक ही होना पड़ा। परिणाम अन्त में वही हुआ जो एक दृढ़संकल्पी का होता है कि "कार्य वा साधयामि देहं वा पातयामि।" लोगों के नाना प्रकार से समझाने पर भी और माता के रोने, विलखने के बावजूद भी वि० सं० १९७०, मार्गशीर्ष शुक्ला ६, रविवार को तेरह वर्ष की उम्र में "मिरी' गाँव में ही नेमिचन्द जी का दीक्षा-महोत्सव हजारों लोगों की उपस्थिति में अत्यन्त धूमधाम से सम्पन्न हुआ तथा आपने मुनि श्री आनन्दऋषि जी के नाम से साधना-पथ पर प्रथम चरण रखा।
नवोन्मेषशालिनी प्रगल्भ बुद्धि __मुनि श्री आनन्दऋषि जी यद्यपि बाल्यकाल से ही होनहार, मेधावी एवं तीव्रबुद्धि के धारी थे तथा ज्ञानार्जन की असीम आकांक्षा रखते थे, किन्तु दीक्षाग्रहण करने के पश्चात् तो आपने अपना ध्यान अन्य समस्त विषयों से हटाकर केवल सरस्वती की उपासना में ही लगा दिया तथा अपनी प्रगाढ़ भक्ति, श्रद्धा एवं विनय के द्वारा अपने गुरु स्वनामधन्य था रत्नऋषि जी महाराज के मन को जीत लिया।
वैराग्यावस्था तक की अल्पवय में ही आपने वीरस्तुति, दशवैकालिक सूत्र, उत्तराध्ययन सूत्र के बीस अध्ययन, पच्चीस बोल एवं सड़सठ बोल आदि का अध्ययन कर लिया था और दीक्षा ग्रहण करने के उपरान्त तो बहुत थोड़े काल में ही नन्दी सूत्र, औपपातिक तथा प्रश्न-व्याकरण सूत्र, निशीथ सूत्र आदि कई शास्त्रों का ज्ञान भी प्राप्त कर लिया।
अपने नूतन शिष्य के क्रिया-कलापों की दृढ़ता एवं ग्राह्यशक्ति की तीव्रता देखकर गुरुदेव को परम सन्तोष हुआ और उन्होंने श्री आनन्दऋषि जी को संस्कृत भाषा का अध्ययन कराने का विचार किया। यह विचार उस समय के सुश्रावकों के सम्मुख रखा गया तथा उसके अनुसार वरखेड़ी से पंडित कृष्णाजी नामक संस्कृत के अतिविद्वान पंडित को पढ़ाने के लिये बुलवाया गया।
केवल दो माह की अल्पावधि में ही हमारे चरितनायक ने पंडित जी से शब्दरूपावली, धातुरूपावली, समासचक्र एवं रघुवंश के दो सर्गों का अध्ययन कर लिया तथा बड़ी गंभीरता पूर्वक आगे पढ़ना जारी रखा। उनके अध्ययन की सबसे बड़ी विशेषता यही थी कि वे प्रत्येक विषय में उठने वाली सूक्ष्म-सेसूक्ष्म जिज्ञासा अथवा आशंका का पूर्णतया समाधान चाहते थे। प्रायः वे अपनी शंका का समाधान करने के लिये अतिसूक्ष्म, चिन्तन-प्रधान एवं पूर्णतया तर्कसंगत प्रश्न पंडित जी के सामने रखते थे, जिनका उत्तर देना उनके लिये कठिन हो जाता था । आखिर घबराकर वे एक दिन चले गए।
इसके पश्चात बनारस से व्यंकटेश लेले शास्त्री को बुलवाया गया। शास्त्रीजी ने श्री आनन्दऋषि जी को लघुकौमुदी तथा किरातार्जुनीय काव्य के दूसरे सर्ग का सार्थ ज्ञान कराया। किन्तु दस माह के अध्यापन कार्य के पश्चात् ही वे भी चल दिये तथा मुनिजी के अध्ययन की समस्या कठिन हो गई।
___अध्यापकों के थोड़े दिन पढ़ाने और उसके पश्चात् पढ़ाने से इन्कार कर देने के कारण गुरुदेव श्री रत्नमुनि जी महाराज को बड़ी हैरानी और चिन्ता हुई। उन्होंने स्थानीय थावक संघ के समक्ष कहा"मैं तो चाहता था कि आनन्द प्राकृत के साथ ही संस्कृत भाषा पर भी पूर्ण अधिकार प्राप्त कर के विद्वान बन जाय तथा सफलतापूर्वक जन-कल्याण कर सके, किन्तु अब तो यह संभव नहीं दिखाई देता।"
गुरुदेव की बात सुनकर संघ चकित एवं आशंकित हो उठा और भीत स्वर से लोगों ने पूछा"ऐसा क्यों भगवन् ? क्या मुनिजी को समझने में कठिनाई होती है ? वे पढ़ नहीं पाते ?"
गुरुदेव प्रच्छन्नभाव से बोले-"अरे भाई ! पढ़ तो वह सब कुछ लेता है किन्तु साथ ही ऐसे-ऐसे गंभीर और सूक्ष्म प्रश्न पूछने लगता है कि अध्यापक लोग चकरा जाते हैं तथा हैरान होकर चल देते हैं।"
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आचार्यप्रवभिआचार्यप्रवरअर श्रीआनन्द
श्रीआनन्द
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