Book Title: Anandrushi Abhinandan Granth
Author(s): Vijaymuni Shastri, Devendramuni
Publisher: Maharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
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प्रामा
[मन का महिमा-मन चंगा तो कटोत हौ में गंगा, मनः शुद्धि की अपेक्षा है, इन मूत्रों का सुन्दर विवेचन ।]
१५ मन की महिमा
आज हम कर्म-बंधन और मुक्ति के कारण के बारे में विचार करेंगे कि कर्मों के बंधन में और उनसे मुक्ति में मुख्य हेतु क्या है। कर्मबंध का कारण
धर्मशास्त्रों में तीन प्रकार के योग बताये गये हैं-मनोयोग, वचनयोग और काययोग। इन तीनों योगों में से किसी भी योग का कषाय के साथ संबन्ध होने से कर्मबंध होता है। कषाय चार हैं-क्रोध, मान, माया और लोभ । इन चारों में से किसी भी एक या एक से अधिक कषाय के साथ मन, वचन - और काया के योग जुड़ेंगे तभी कर्म का बंध होगा। अकेले कषाय या अकेले योग से कर्म नहीं बंधते । कषाय अगर नहीं है तो तीनों योगों के विद्यमान रहते हुए भी कुछ नहीं होगा। और तीनों योगों का संबन्ध न होने पर कषाय कर्मों का बंधन आत्मा के साथ करेंगे भी कैसे ? आशय यही है कि कर्मबंधन तभी होगा जब कषायों का और योगों का आपस में सम्बन्ध होगा। कर्म का अबंधक कौन ?
हमारे तीर्थकर भगवान जो विदेही हैं और जिन्होंने केवलज्ञान और केवलदर्शन प्राप्त कर लिया है, उनके मन, वचन और काया इन तीनों योगों के रहते हुए भी कर्मबंध नहीं होता। उन्हें पाप नहीं लगता । ऐसा क्यों ? इसलिये कि उनके योग है पर कषाय नहीं है। अगर कषाय होते और मोहनीय कर्म भी जीता न जाता तो उन्हें केवल ज्ञान नहीं हो सकता था । समस्त कर्मों के शिरोमणि मोहकर्म को जीत लेने के कारण ही उन्हें केवलज्ञान की प्राप्ति हुई है और इसके कारण उनके पापकर्मों का बंधन नहीं होता-रुक गया है। विदेह शब्द का अर्थ
हम प्रायः महापुरुषों के लिये 'विदेह' शब्द का प्रयोग देखते हैं । राजा जनक को विदेही कहा जाता है । बड़े-बड़े योगी भी उनके पास ज्ञान प्राप्ति के हेतु आते थे।
__ श्री उत्तराध्ययन सूत्र में राजकुमार मृगापुत्र के लिये कहा गया है-'जुवराया दमोसरे।' जुवराया यानी युवराज और दमीसरे अर्थात् इन्द्रियों तथा मन का दमन करने वाला। दो विरोधी शब्दों का कितना आश्चर्यजनक मेल है ? भविष्य में जो राजा बनने वाला है उस युवराज को दमीसरे कहा गया है। पढ़कर आश्चर्य होता है कि युवराज की पदवी के साथ इन्द्रिय और मन के दमन की पदवी भी चल सकती है ? एक युवराज या राजा अपनी इन्द्रियों को वश में रख सकता है ? क्या एक ही व्यक्ति राजा और योगी दोनों के योग्य कर्तव्यों का समीचीन रूप से निर्वाह कर सकता है ?
साधारण दृष्टि से देखा जाये तो ऐसा होना संभव नहीं लगता। क्योंकि एक का प्रवृत्तिमार्ग है और दूसरे का निवृत्तिमार्ग । प्रवृत्ति और निवृत्ति एक साथ कैसे चल सकती है? प्रवृत्ति सांसारिक उलझनों
रिया
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