Book Title: Anandrushi Abhinandan Granth
Author(s): Vijaymuni Shastri, Devendramuni
Publisher: Maharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
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आयाम प्रवर अगदी आज्ञान की अन्य 31
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२६०
धर्म और दर्शन
ईहा, अवाय से जिसके विशेष धर्मो की मीमांसा हो गई होती हैं, उसी वस्तु के नूतन- नुतन धर्मों की जिज्ञासा और निश्चय करना व्यावहारिक अवग्रह का कार्य है । अवाय के द्वारा एक धर्म का निश्चय होने के पश्चात् उसी पदार्थ सम्बन्धी अन्य धर्म की जिज्ञासा होती है । उस समय पूर्व का अवाय व्यावहारिक अर्थावग्रह हो जाता है और उस जिज्ञासा के निर्णय के लिए पुनः ईहा और अवाय होते हैं । प्रस्तुत क्रम तब तक चलता है, जब तक जिज्ञासायें पूर्ण नहीं होतीं ।
'यह शब्द ही है, इस प्रकार निश्चय होने पर नैश्चयिक अवग्रह की परम्परा समाप्त हो जाती है। उसके पश्चात् व्यावहारिक अर्थावग्रह की धारा आगे बढ़ती है ।
(१) व्यावहारिक अवग्रह — यह शब्द है ।
( संशय - पशु का है या मानव का ? )
(२) भाषा साफ और स्पष्ट है इसलिए मानव का होना चाहिए ।
(३) अवाय - परीक्षा विशेष के बाद निर्णय करना मानव का ही शब्द है ।
इस प्रकार नैश्चयिक अवग्रह का अवाय रूप व्यावहारिक अवग्रह का आदि रूप बनता है । इस तरह उत्तरोत्तर अनेक जिज्ञासाएँ हो सकती हैं । अवस्थाभेद की दृष्टि से यह शब्द वृद्ध का है या युवक का है, लिङ्गभेद की दृष्टि से स्त्री का है या पुरुष का है ।
क्रम - विभाग
ग्रहण
अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा का न उत्क्रम होता है और न व्यतिक्रम होता है । अर्थके पश्चात् ही विचार हो सकता है, विचार के पश्चात् ही निश्चय और निश्चय के पश्चात् ही धारणा होती है । इसलिए अवग्रहपूर्वक ईहा होती है, ईहापूर्वक अवाय होता है, और अवायपूर्वक धारणा होती है ।
ईहा
मतिज्ञान का दूसरा भेद ईहा है । अवग्रह के पश्चात् ज्ञान ईहा में परिणत हो जाता है । अवग्रह के द्वारा सामान्य रूप में अवगृहीत पदार्थ के विषय में विशेष को जानने की ओर झुकी हुई ज्ञान-परिणति को ईहा कहते हैं । कल्पना कीजिए - कोई व्यक्ति आपका नाम लेकर आपको बुला रहा है । उसके शब्द आपके कर्ण-कुहरों में गिरते हैं । अवग्रह में आपको इतना ज्ञान हो जाता है कि कहीं से शब्द आ रहे हैं । शब्द श्रवण कर व्यक्ति चिन्तन करता है कि यह शब्द किसका है ? कौन बोल रहा है ? बोलने वाली महिला है या पुरुष है ? इसके बाद वह चिंतन करता है कि यह शब्द मधुर व कोमल है इसलिए किसी महिला का होना चाहिए। क्योंकि पुरुष का स्वर कठोर व रूक्ष होता है । यहाँ तक ईहा ज्ञान की सीमा है ।
यहाँ प्रश्न हो सकता है कि ईहा तो एक प्रकार से संशय है, ईहा और संशय में भेद ही
क्या है ?
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उत्तर में कहा जाता है कि ईहा संशय नहीं है क्योंकि संशय में दोनों पक्ष बराबर होते हैं । संशय उभयकोटि स्पर्शी होता है। संशय में ज्ञान का किसी एक ओर झुकाव नहीं होता । यह स्त्री का स्वर है या पुरुष का स्वर है, यह निर्णय नहीं हो पाता । संशय अवस्था में ज्ञान त्रिशंकु की तरह मध्य में ही लटकता रहता है। किन्तु ईहा के सम्बन्ध में यह बात नहीं है । ईहा में ज्ञान उभयकोटि में से एक कोटि की ओर झुक जाता है । संशय ज्ञान में उभय कोटियाँ समकक्ष होती हैं जबकि ईहा ज्ञान एक कोटि की ओर ढल जाता है । यह सही है ईहा में पूर्ण निर्णय या पूर्ण निश्चय नहीं हो पाता है तथापि ईहा में ज्ञान का झुकाव निर्णय की ओर अवश्य होता है । यही संशय और हा में बड़ा अन्तर है। धवला में भी कहा है-— ईहा ज्ञान संदेह रूप नहीं है क्योंकि ईहात्मक विचार
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