Book Title: Anandrushi Abhinandan Granth
Author(s): Vijaymuni Shastri, Devendramuni
Publisher: Maharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
View full book text
________________
जैन-दर्शन का कबीर-साहित्य पर प्रभाव
३४३
BETION
अण्णु णिरंजणु देउ पर अप्पा सण णाक। अप्पा सच्चउ मोक्ख पहु एहउ मूढ वियाणु ॥७६॥
-पाहुडदोहा, पृ० २४ कबीर ने भी 'निरञ्जन' शब्द का प्रयोग ब्रह्म के लिए ही किया है। कबीर जहाँ निरञ्जन से परमतत्व की ओर संकेत करना चाहते हैं, वहीं पर वे उस तत्व को निर्गुण और निराकार भी बतलाते हैं। उनका कथन है--
गोव्यंदे तूं निरंजन तूं निरंजन राया। तेरे रूप नाहीं रेख नाहीं मुद्रा नहीं माया ॥२१॥
--कबीर ग्रन्थावली, ४३६ कबीर के अनुसार यदि महारस का अनुभव करना है, तो निरञ्जन का परिचय प्राप्त कर उसे हृदय में बसा लेना आवश्यक है । कबीर के विचार से विश्व के समस्त दृश्यमान् पदार्थ अञ्जन हैं और निरञ्जन इन पदार्थों से नितान्त पृथक् है । यथा
अंजन अलप निरंजन सार, यहै चीन्हि नर करहु विचार ।
अंजन उतपति बरतनि लोइ, बिना निरंजन मुक्ति न होई ॥३४७।। कबीर ने इस निरंजन तत्व के सहारे सबसे बड़ा जो कार्य किया, वह है हिन्दू और मुस्लिम के बीच भेदभाव की बढ़ती हुई खाई को पाटना । हिन्दू और तुर्क दोनों की पद्धतियाँ उन्हें मान्य नहीं थी, क्योंकि उनका तो एक निरंजन तत्त्व ही आराध्य था और उसी की आराधना उनके लिये सर्वोपरि थी। वे कहते हैंएक निरंजन अल्लह मेरा, हिन्दू तुरक दुहुँ नहीं मेरा।
समरसता आचार्य द्विवेदी के अनुसार 'पिण्ड में मन का जीवात्मा में तिरोभूत हो जाना या एकमेक होकर मिल जाना ही सामरस्य है।' जैन कवियों की भी यही मान्यता रही है कि प्रत्येक प्राणी में परमतत्व की अवस्थिति है, किन्तु अज्ञान का पर्दा पड़े रहने के कारण प्राणी उस परमतत्व का साक्षात्कार नहीं कर सकता। उसे तो आन्तरिक शुद्धि के द्वारा ही प्राप्त किया जा सकता है। जीव परमतत्व से ऐक्य की स्थिति में उस तत्व को अन्दर ही प्राप्त कर लेता है। जीव की इस दशा का वर्णन मुनि योगीन्दु, रामसिंह एवं आनन्दतिलकसूरि ने भी किया है। योगीन्दु मुनि कहते हैं कि मन का जीवात्मा में ऐक्य हो जाना ही सामरस्य है।
मणु मिलियउ परमेसरहँ परमेसरु वि मणस्स । वीहि वि समरसि-हूवाह पुज्ज चडावउँ कस्स ॥१२३॥
-परमात्मप्रकाश, पृ० १२५ अर्थात मन परमेश्वर से मिल गया-तन्मय हो गया और परमेश्वर भी मन से मिल गया, दोनों समरस हो गये, तब ऐसी स्थिति में पूजा का प्रयोजन समाप्त हो गया।
मुनि रामसिंह ने भी मुनि योगीन्दु के दृष्टान्त को ही प्रस्तुत किया है। वे भी कहते हैं कि जब विकल्प रूप मन भगवान् आत्माराम से मिल गया और ईश्वर भी मन से मिल गया, दोनों समरसता की स्थिति में पहँच गये, तब पूजा किसे चढ़ाऊँ ? यथा
मणु मिलयउ परमेसरहो, परमेसरू जि मणस्स । विण्णिा वि समरसि हइ रहिय पूज्ज चढावउँ कस्स ॥४६॥
-पाहुडदोहा, पृ० १६
आचार्यप्रवर अभी प्रामानन्दा-ग्रन्थाआनन्दपादन]
aurav..ADramaana
-
AdivadaareaamaAAAAAAMANARurandatadaanahunJAAN
WOODOOT
आचार्यप्रवभिनत
AN
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org