Book Title: Anandrushi Abhinandan Granth
Author(s): Vijaymuni Shastri, Devendramuni
Publisher: Maharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
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आचार्यप्रवाअभियप्रवाआभगन्दन श्रीआनन्दा अन्यश्रीआनन्द अन्य
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प्राकृत भाषा और साहित्य
क्रियायें अवचेतन मन में होती हैं । इन दोनों प्रकार की क्रियाओं को मनोवृत्ति कहा जाता है। साधारणतः तो मनोवत्ति शब्द चेतन मन की क्रिया के बोध के लिए ही प्रयुक्त होता है। परन्तु वस्तुतः यह नहीं है। प्रत्येक मनोवृत्ति के तीन पहलू हैं-ज्ञानात्मक, वेदनात्मक और क्रियात्मक । मनोवृत्ति के इन तीनों पहलुओं को एक-दूसरे से पृथक् नहीं किया जा सकता। क्योंकि मनुष्य को जो कुछ ज्ञान होता है, उसके साथ वेदना और क्रियात्मक भाव की भी अनुभूति होती है। ज्ञानात्मक मनोवृत्ति के संवेदन, प्रत्यक्षीकरण, स्मरण, कल्पना और विचार ये पांच रूप होते हैं। संवेदनात्मक के संवेग, उमंग, स्थायीभाव और भावनाग्रन्थि ये चार रूप होते हैं। क्रियात्मक मनोवृत्ति के सहज क्रिया, मुलवत्ति, आदत, इच्छित क्रिया और चरित्र ये पाँच रूप होते हैं । मनोवृत्ति के इन विविध रूपों का शुद्धिकरण ही जीवन का शुद्धिकरण है, व्यवहार का शुद्धिकरण है । मन की प्रत्येक प्रवृत्ति वचन और काया से सम्बन्धित होती है। वचन द्वारा बोले जाने वाले शब्द तथा काया द्वारा की जाने वाली क्रियायें ही मन को अपनी ओर आकर्षित करती हैं: केन्द्रित करती हैं। ज्ञानकेन्द्र और क्रिया-केन्द्रों का समन्वय होने से भी मानव मन सुदृढ़ होता है। मन की सुदृढ़ता ही उसके चरित्र को उन्नायक है तथा उसके स्थायी भावों का आधार है ।
शब्द-शक्ति का मूल-मनुष्य का चरित्र उसके स्थायी भावों का समुच्चय मात्र है । जिस मनुष्य के स्थायी भाव जिस प्रकार के होते हैं, उसका चरित्र भी उसी प्रकार का होता है । मनुष्य का परिमाजित और आदर्श स्थायी भाव ही हृदय की अन्य प्रवृत्तियों का नियन्त्रण करता है। जिस मनुष्य के स्थायी भाव सुनियन्त्रित नहीं तथा जिसके मन में उच्च आदर्शों के प्रति स्थायी भाव नहीं है, उसका व्यक्तित्व सुगठित तथा उसका चरित्र सुन्दर नहीं हो सकता। सुगठितता व चरित्रशीलता का शब्दों के उच्चारण के साथ बहुत गहरा सम्बन्ध है । शब्दशक्ति का अपना अचूक प्रभाव होता है। मनुष्य के द्वारा की जाने वाली अनेकानेक प्रवृत्तियाँ आदमी द्वारा समुच्चारित शब्दों का ही प्रतिबिम्ब हैं। मनोवैज्ञानिक तथ्यों के आधार पर इन प्रवृत्तियों में से भोजन ढूंढ़ना, भागना, लड़ना, उत्सुकता, रचना, संग्रह, विकर्षण, शरणागत होना, कामप्रवृत्ति, शिशु-रक्षा, दूसरों की चाह, आत्म-प्रकाशन, विनीतता और हँसना, ये चौदह मूलप्रवृत्तियाँ हैं । इन मूल-प्रवृत्तियों का अस्तित्व संसार के सभी प्राणियों में पाया जाता है। परन्तु मनुष्य की ही यह विशेषता है कि वह इन मूल-प्रवृत्तियों में समुचित परिवर्तन कर लेता है। अन्यथा केवल मूलप्रवत्तियों द्वारा संचालित जीवन असभ्य और पाशविक जीवन कहलाता है । इसलिए इन मूल-प्रवृत्तियों में Repression दमन, Inhibition विलयन, Redirection मार्गान्तरीकरण और Sublimation शोधन, ये परिवर्तन होते रहते हैं। ये परिवर्तन सहज व स्वाभाविक हैं फिर भी शब्दशक्ति से बहुत प्रभावित रहते हैं। उदाहरणतया कम्पन शब्द के श्रवण, मनन, चिन्तन तथा जल्पन के साथ ही कम्पन की क्रिया सहज होने लगती है। भयात्मक शब्द के श्रवण, मनन, चिन्तन व जल्पन के साथ ही भयात्मक स्थिति बनने लगती है। इसलिए ये परिवर्तन भी शब्दरचना से सम्बन्धित रहते हैं। शब्दशक्ति का मूल वर्णमाला का आकार-प्रकार है, द्रव्यश्रुत का आधार है।
गणित के द्वार पर श्रुतज्ञान-श्रुतज्ञान के दो प्रकार होते हैं-द्रव्यश्रुत और भावश्रुत; अक्षर रूप ज्ञान के आत्मभाव को भावत कहते हैं। इस ज्ञान के आत्मभावों के अनुरूप ही विधायें होती हैं ।
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