Book Title: Anandrushi Abhinandan Granth
Author(s): Vijaymuni Shastri, Devendramuni
Publisher: Maharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
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जैन श्रमण संघ : समीक्षात्मक परिशीलन
१३७
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अमिलित, अव्यत्यानंडित, प्रतिपूर्ण, प्रतिपूर्ण घोष तथा कण्ठोष्ठविप्रमुक्त विशेषण दिये गये है।' संक्षेप में इनका तात्पर्य यों है१. शिक्षित
साधारणतया सीख लेना। २. स्थित
सीखे हुए को मस्तिष्क में टिकाना । ३. जित
अनुक्रम पूर्वक पठन करना। ४. मित
अक्षर आदि की मर्यादा, संयोजन आदि जानना । ५. परिजित
अननुक्रम-व्यतिक्रम या अनुक्रम के बिना पाठ करना। ६. नामसम
जिस प्रकार हर व्यक्ति को अपना नाम स्मरण रहता है, उस प्रकार सूत्र का पाठ याद रहना अर्थात् सूत्रपाठ को इस प्रकार आत्मसात् कर लेना कि जब भी पूछा जाए,
यथावत् रूप में बतलाया जा सके। ७. घोषसम
स्वर के ह्रस्व, दीर्घ, प्लुत तथा उदात्त, अनुदात्त और स्वरित के रूप में जो उच्चारण सम्बन्धी भेद वैयाकरणों
ने किये हैं, उनके अनुरूप उच्चारण करना । ८. अहीनाक्षर
पाठकम में किसी भी अक्षर को हीन-लुप्त या अस्पष्ट न
कर देना। ६. अनत्यक्षर
अधिक अक्षर न जोड़ना। १०. अव्याविद्धासर
अक्षर, पद आदि का विपरीत-उल्टा पठन न करना। ११. अस्खलित
पाठ में स्खलन न करना, पाठ का यथाप्रवाह उच्चारण
करना। १२. अमिलित
अक्षरों को परस्पर न मिलाते हुए-उच्चारणीय पाठ के साथ किन्हीं दूसरे अक्षरों को न मिलाते हुए उच्चारण
करना। १३. अव्यत्यानंडित
अन्य सूत्रों, शास्त्रों के पाठ को समानार्थक जानकर उच्चार्य पाठ के साथ मिला देना व्यत्यानंडित है। ऐसा न
करना अव्यत्या म्रडित है। १४. प्रतिपूर्ण
पाठ का पूर्ण रूप से उच्चारण करना, उसके किसी अंग को अनच्चारित न रखना।
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१. अनुयोग द्वार सूत्र--१६ २. ऊकालोऽज्यस्व दीर्घ प्लुतः ।
-पाणिनीय अष्टाध्यायी १. २. २७ । ३. उच्च रुदात्तः । नीचैरनुदात्तः । समाहारः । स्वरितः ।
-पाणिनीय अष्टाध्यायी १. २. २६-३१
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