Book Title: Anandrushi Abhinandan Granth
Author(s): Vijaymuni Shastri, Devendramuni
Publisher: Maharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
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आचार्यप्रवर त्रिआचार्यप्रवअभिनय श्रीआनन्दग्रन्थश्राआनन्दान्थः ६ १३८ इतिहास और संस्कृति १५. प्रतिपूर्णधोष
उच्चारणीय पाठ का मन्द स्वर, जो कठिनाई से सुनाई दे, द्वारा उच्चारण न करना, पूरे स्वर का स्पष्टता से उच्चा
रण करना। १६. कण्ठोष्ठविप्रमुक्त : उच्चारणीय पाठ या पाठांश को गले और होठों में अटका
कर अस्पष्ट नहीं बोलना। सूत्र पाठ को अक्षुण्ण तथा अपरिवर्त्य बनाये रखने के लिए उपाध्याय को सूत्र-वाचना देने में कितना जागरूक तथा प्रयत्नशील रहना होता था, यह उक्त विवेचन से स्पष्ट है।
लेखनक्रम के अस्तित्व में आने से पूर्व वैदिक, जैन और बौद्ध सभी परम्पराओं में अपने आगमों, आर्ष शास्त्रों के कण्ठस्थ रखने की प्रणाली थी। मूल पाठ का रूप अक्षुण्ण बना रहे, परिवर्तन समय का उस पर प्रभाव न आए, इस निमित्त उन द्वारा ऐसे पाठ-क्रम या उच्चारण-पद्धति का परिस्थापन स्वाभाविक था, जिससे एक से सुनकर या पढ़कर दूसरा व्यक्ति सर्वथा उसी रूप में शास्त्र को आत्मसात् बनाये रख सके । उदाहरणार्थ संहिता पाठ, पद-पाठ, क्रम-पाठ जटा-पाठ, और घन-पाठ के रूप में वेदों के पठन का भी बड़ा वैज्ञानिक प्रकार था, जिसने अब तक उनको मूल रूप में बनाये रखा है।
एक से दूसरे द्वारा श्रुति-परम्परा से आगम-प्राप्तिक्रम के बावजूद जैनों के आगमिक वाङमय में कोई विशेष या अधिक परिवर्तन आया हो, ऐसा सम्भव नहीं लगता । सामान्यतः लोग कह देते हैं कि किसी से एक वाक्य भी सुनकर दूसरा व्यक्ति किसी तीसरे व्यक्ति को बताए तो यत्किंचित् परिवर्तन आ सकता है, फिर यह कब सम्भव है कि इतने विशाल आगम-वाङमय में काल की इस लम्बी अवधि के बीच भी कोई परिवर्तन नहीं आ सका। साधारणतया ऐसी शंका उठना अस्वाभाविक नहीं है किन्तु आगम-पाठ की उपर्युक्त परम्परा से स्वतः समाधान हो जाता है कि जहाँ मूल पाठ की सुरक्षा के लिए इतने उपाय प्रचलित थे, वहाँ आगमों का मूल स्वरूप क्यों नहीं अव्याहत और अपरिवर्तित रहता ।
अर्थ या अभिप्राय का आश्रय सूत्र का मूल पाठ है । उसी की पृष्ठभूमि पर उसका पल्लवन और विकास सम्भव है । अतएव उसके शुद्ध स्वरूप को स्थिर रखने के लिए सूत्र-वाचना या पठन का इतना बड़ा महत्व समझा गया कि संघ में उसके लिए 'उपाध्याय' का पृथक् पद प्रतिष्ठित किया गया। प्रवर्तक
आचार्य के बहविध उत्तरदायित्वों के सम्यक निर्वहण में सुविधा रहे, धर्म-संघ उत्तरोत्तर उन्नति करता जाए, श्रमणवन्द श्रामण्य के परिपालन और विकास में गतिशील रहे, इस हेतु अन्य पदों के साथ प्रवर्तक का भी विशेष पद प्रतिष्ठित किया गया। प्रवर्तक पद का विश्लेषण करते हए लिखा है
तप संयमयोगेषु, योग्यं योहि प्रवर्तयेत् । निवर्तयेदयोग्यं च, गणचिन्ती प्रवर्तकः ॥'
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१. धर्मसंग्रह, अधिकार ३, गाथा १४३
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