Book Title: Anandrushi Abhinandan Granth
Author(s): Vijaymuni Shastri, Devendramuni
Publisher: Maharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
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जैन श्रमण संघ : समीक्षात्मक परिशीलन
(स्थविर) उसे ज्ञान, दर्शन तथा चारित्र्य की याद दिलाते हैं। पतनोन्मुख श्रमणों को वे ऐहिक और पारलौकिक अधःपतन दिखला कर मोक्ष के मार्ग में स्थिर करते हैं।' इसी आशय को और स्पष्ट करते हुए कहा गया है
तेन व्यापारितेष्वर्थे-पनगारांश्च सीदतः ।
स्थिरीकरोति सच्छक्तिः, स्थविरो भवतीह सः ॥ तप, संयम, श्रुताराधना तथा आत्म-साधना आदि श्रमण-जीवन के उन्नायक कार्य, जो संधप्रवर्तक द्वारा श्रमणों के लिए नियोजित किये जाते हैं, में जो श्रमण अस्थिर हो जाते हैं, इनका अनुसरण करने में जो कष्ट मानते हैं या इनका पालन करना जिनको अप्रिय लगता है, भाता नहीं, उन्हें जो आत्मशक्तिसम्पन्न दृढचेता श्रमण उक्त अनुष्ठेय कार्यों में दृढ़ बनाता है, वह स्थविर कहा जाता है।
इससे स्पष्ट है कि संयम-जीवन. जो श्रामण्य का अपरिहार्य अंग है, के प्रहरी का महनीय कार्य स्थविर करते हैं । संघ में उनकी बहुत प्रतिष्ठा तथा साख होती है। अवसर आने पर वे आचार्य तक को आवश्यक बातें सुझा सकते हैं, जिन पर उन्हें (आचार्य को) भी गौर करना होता है।
संक्षेप में, सार यह है कि स्थविर संयम में स्वयं अविचल-स्थितिशील होते और संघ के सदस्यों को वैसा बने रहने के लिए उत्प्रेरित करते रहते हैं। गणी
___गणी का सामान्य अर्थ गण या साधु-समुदाय का अधिपति है। अत: आचार्य के लिए भी इस शब्द का प्रयोग देखने में आता है। परन्तु यहाँ यह एक विशिष्ट अर्थ को लिए हुए है। संघ में जो अप्रतिम विद्वान, बहुश्रुत श्रमण होता था, उसे गणी का पद दिया जाता था। गणी के सम्बन्ध में लिखा है
अस्य पार्वे आचार्याः सूत्रद्यमभ्यस्यन्ति ।3 अर्थात् आचार्य उनके पास सूत्र आदि का अभ्यास करते हैं। - यद्यपि आचार्य का स्थान संघ में सर्वोच्च होता है। उनमें आचार पालने, पलवाने, संघ के श्रमणों को अनुशासन में रखने, उनको तत्व-ज्ञान देने, उनका परिरक्षण तथा विकास करते रहने की असाधारण
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संविग्गो मद्दविओ, पियधम्मो नाणदसणचरित्तै ।
जे अट्ठ परि हायइ, सातो ते हवई थेरो ॥ यः संविग्नो मोक्षाभिलाषी, मार्दवित: संज्ञातमार्दविकः । (१) प्रियधर्मा एकान्तवल्लभः संयमानुष्ठाने, यो ज्ञानदर्शनचारित्रेषु मध्ये यानानपादेयानुष्ठानविशेषान् परिहापयति हानि नयति तान् तं स्मारयन् भवति स्थविरः, सीदमानान्साधन ऐहिकाऽऽमुष्मिकापायप्रदर्शनतां मोक्षमार्गे स्थिरीकरोतीति स्थविर इति व्युत्पतेः।
-अभिधान राजेन्द्र भाग, ४, पृष्ठ २३८६-८७ २. धर्मसंग्रह, अधिकार ३, गाथा ७३ ३. कल्प सुबोधिका कल्प :
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आपाप्रवाहव आनापार्यप्रवर अमन श्राआडन्न्याश्रीआनन्द
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