Book Title: Anandrushi Abhinandan Granth
Author(s): Vijaymuni Shastri, Devendramuni
Publisher: Maharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
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D श्री कुन्दन ऋषि [संस्कृत प्राकृत के अभ्यासी आचार्य प्रवर के अन्तेवासी]
ऋषि सम्प्रदाय के पाँच सौ वर्ष
श्रमण भगवान महावीर के निर्वाण के पश्चात करीब एक हजार वर्ष तक संघ व्यवस्था सुव्यवस्थित रीति से चलती रही। इसके बाद तात्विक सिद्धान्तों में एकरूपता रहने पर भी आचारिक दृष्टि से अनेक प्रकार की विभिन्नताएँ आ गई। इन्हीं आचार-क्रियाओं के मतभेद को लेकर अनेक गच्छ बन गये और उनमें भी धीरे-धीरे शिथिलता फैलती गई। श्रमण वर्ग में चैत्यवाद का व्यापक प्रसार हो गया। मठों की तरह साधु जन उपाश्रय बना कर रहने लगे। ज्योतिष, गणित, मन्त्र-तन्त्र का भी आश्रय लेकर यश-प्रतिष्ठा प्राप्त करने का प्रयत्न होने लगा। साधुओं ने छड़ी, पालकी आदि बाह्य वैभव को अपनाने के साथ-साथ अपने को 'यति' कहना प्रारम्भ कर दिया। सारांश यह है कि वेशतः साधु रहने पर भी श्रवण वर्ग में आचारिक शिथिलता आने के साथ-साथ वैचारिक दृष्टिकोण बदल गया और कनककामिनी का त्यागी वर्ग भी किसी न किसी रूप में लक्ष्मी का उपासक बन गया।
भगवान महावीर के निर्वाण के बाद लगभग एक हजार वर्ष का यह मध्य काल जैन शासन के इतिहास में काफी धुंधला है। इस काल में श्रमण संघ का विकास अवरुद्ध तो हुआ ही साथ ही वह अवनति की ओर भी जा रहा था।
इसी समय में धर्मप्राण क्रान्तिकारी लोकाशाह का जन्म हुआ। बाल्यकाल से आप प्रतिभाशाली और मेधावी थे। पन्द्रह वर्ष की आयु में शास्त्रों के अध्ययन में अच्छी प्रवीणता प्राप्त कर ली और जैसे-जैसे शास्त्रों की गहराई में उतरे तो स्पष्ट होने लगा कि शास्रोक्त साधु-आचार और प्रचलित यति-आचार में कोई तालमेल ही नहीं है। आकाश-पाताल जैसा अन्तर है। धार्मिक क्षेत्र की इस बिरूपता को देखकर लोंकाशाह के मन में एक संकल्प जाग्रत हुआ कि हमारे श्रमण वर्ग की यह वर्तमान स्थिति महावीर शासन को मलिन बना रही है। यदि इसका परिमार्जन नहीं किया गया तो भविष्य में जैनत्व का नामशेष ही रह जायेगा। जनसाधारण तो धार्मिक भावनाओं से विमुख हो ही रहा है और हमारा पूज्य श्रमण वर्ग भी अपने पद के अनुकूल नहीं रहा तो जैन धर्म, दर्शन-संस्कृति और साहित्य के जानकार भी नहीं रहेंगे। इस स्थिति से छुटकारा पाने का एक ही उपाय है कि आगमोक्त सिद्धान्तों से जनता को परिचित करवाया जाये।
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