Book Title: Anandrushi Abhinandan Granth
Author(s): Vijaymuni Shastri, Devendramuni
Publisher: Maharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
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आचार्यप्रवभिआचार्यप्रवर श्रीआनन्दान्थश्राआनन्दीअन्य
इतिहास और संस्कृति
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इनमें से महासती श्री दयाजी म० और महासती श्री लक्षमाजी म० की ही शिष्य परम्परा चली।
महासती श्री सरदारा जी म०
आपने प्रवर्तिनी श्री कुशलकवर जी म० से दीक्षा ग्रहण की थी। महासती श्री रंभाजी म. से बहुत स्नेह रखती थीं और दोनों साथ-साथ विचरण किया करती थीं । प्रकृति से आप सरल, भद्र परिणामी थीं । धार्मिक और शास्त्रीय ज्ञान अनूठा था। जनता आपके व्याख्यान सुनकर मुग्ध हो जाती थी। महासती श्री धनकंवर जी म०
आपका अधिक समय अपनी गुरुणी जी प्रवर्तिनी श्री कुशलकवर जी म० की सेवा में बीता। मालवा, मेवाड़ में विचरण कर आपने धर्मोपदेश द्वारा जनता को सन्मार्ग का दर्शन कराया । आप तपस्वनी सती थीं। आपकी शिष्याएँ कितनी थीं इसका क्रमबद्ध इतिहास नहीं मिलता है। एक नाम मिलता हैमहासती श्री फूलकुँवर जी म० । इनके शिष्य परिवार में महासती श्री सरसा जी म०, श्री केसर जी म०, श्री रंभा जी म० हुए हैं। इनका भी परिचय प्राप्त नहीं है। महासती श्री दयाकंवर जी म०
आप श्री कुशलकंवर जी म० की शिष्या थीं। शास्त्रीय ज्ञान से ओत-प्रोत होने के कारण आपका व्याख्यान प्रभावशाली होता था। आपका विहार क्षेत्र मालवा, मेवाड़, बागड़ आदि प्रान्त रहे हैं।
जीवन के अन्तिम दिनों में आप रतलाम विराजती थीं। एक दिन रात्रि में तीसरे पहर जागकर आपने अपनी विदुषी महासती श्री गेंदा जी म० से पूछा कि रात्रि कितनी शेष है। तीसरा प्रहर बीतने की बात जानकर तथा अपने शारीरिक लक्षणों में अपना अन्तिम समय जानकर संथारा लेने का कहा और यह भी कह दिया कि यह संथारा २५ दिन चलेगा। तब सती श्री गेंदाजी के खाचरौद में विराजित महासती श्री गुमान कंवर जी म. आदि ठा० को समाचार देने का निवेदन करने पर आपने कहा कि वे तीन दिन में रतलाम आ जायेंगी, समाचार देने की जरूरत नहीं है। हुआ भी ऐसा ही ठीक पच्चीसवें दिन संथारा सीझा और खाचरौद से सतियाँ जी तीसरे दिन रतलाम पधार गई।
आपकी शिष्याओं में महासती श्री घीसा जी, श्री झमक जी, श्री हीराजी, श्री गुमाना जी, श्री गंगाजी, श्री मानकंवर जी म० प्रसिद्ध हैं। इनमें से श्री झुमकू जी म०, श्री गंगाजी म०, श्री हीराजी म०, श्री गुमाना जी म० की शिष्य परम्परा आगे चली । महासती श्री झुमकू जी म०
आप पिपलोदा निवासी श्री माणकचन्द जी नांदेचा की सुपुत्री थीं। सं० १९२१ में आपको दीक्षा के उपलक्ष में इनकी बड़ी माताजी ने रतलाम में साहू बाबड़ी के समीप एक धर्म स्थानक भेंट दिया था। आपके द्वारा मालवा और दक्षिण में अच्छा धर्म प्रचार हुआ। आपकी १६ शिष्याएँ हुई। इन शिष्य सतियों की उत्तरवर्ती काल में शिष्य परम्परा चल रही है।
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