Book Title: Anandrushi Abhinandan Granth
Author(s): Vijaymuni Shastri, Devendramuni
Publisher: Maharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
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ऋषि सम्प्रदाय के पाँच सौ वर्ष
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आचार्य प्रवर के तत्त्वावधान में आज ऋषि सम्प्रदाय के अनेक तेजस्वी, धीर, गम्भीर प्रभावशाली मुनिवर धर्मोद्योत कर रहे हैं—विद्वद्वर श्री मोहन ऋषि जी म०, प्रवर्तक श्री विनय ऋषि जी म०, पं० श्री कल्याण ऋषि जी म० आदि सन्तों का समूह ऋषि परम्परा को ज्योतिर्मान कर रहा है। ऋषि सम्प्रदाय की महासतियाँ
इतिहास की यह एक कमी रही है कि उसमें पुरुष वर्ग के कार्यों का तो अंकन होता रहा वहाँ महिला वर्ग को उपेक्षणीय जैसा माना है। यही कारण है कि पुण्यश्लोका महिलाओं के बारे में हमारी जानकारी नहीं जैसी है। ऋषि सम्प्रदाय के महर्षियों का इतिवृत्त तो यत्किचित रूप से सं० १६६२ से मिलता है, लेकिन महासतियों में उस समय कौन विराजमान थे यह जानना कठिन है। किन्तु प्रतापगढ़ भण्डार से प्राप्त एक प्राचीन पत्र से ज्ञात हुआ कि सं० १८१० वैशाख शुक्ला ५ मंगलवार को पंचेश्वर ग्राम में चार सम्प्रदायों का सम्मेलन हुआ था, उसमें ऋषि सम्प्रदाय की तरफ से सन्तों में पूज्य श्री ताराऋषि जी म. और सतियों में श्री राधाजी म० उपस्थित थे।
ऋषियों के इतिवृत्त से स्पष्ट है कि पूज्य श्री लवजी ऋषि जी म० के पाट पर क्रमशः पूज्य श्री सोमऋषि जी, पूज्य श्री कहानजी ऋषि जी, पृ० श्री तारा ऋषिजी म. विराजे थे ।
महासती श्री राधाजी म० का परिचय तो प्राप्त नहीं है। किन्तु इनके बारे में इतना ही कहा जा सकता है आप अपने समय की प्रभावक सतियों में से एक थीं। चतुर्विध संघ के संगठन एवं महिलावर्ग की जागृति में महान योग दिया था। आपकी अनेक शिप्याएँ थी जिनमें महासती श्री किसना जी प्रसिद्ध थीं। महासती श्री किसना जी म० की शिष्याएँ भी जोता जी म० और उनकी शिष्या श्री मोता जी म० हई। श्री मोता जी म० की अनेक शिष्याओं में श्री कुशालकुंवर जी म० का नाम विशेष उल्लेखनीय है । उन्होंने जैन धर्म की विशेष प्रभावना की । अत: यहाँ महासती श्री कुशाल कुँवर जी म. से लेकर कुछ एक सतियाँ जी का परिचय दिया जा रहा है।
महासती श्री कुशलकुँवर जी महाराज
आप मालवा प्रान्त में बागड़देशीय हावड़ा ग्राम की थीं। आपने श्री मोता जी म० के पास उत्कृष्ट वैराग्य भाव से दीक्षा ग्रहण की थी। आप प्रभावक एवं संयमनिष्ठ सती थीं। आपके व्याख्यान सुनने बड़ेबड़े राजा, जागीरदार आदि भी आया करते थे। एक बार पूज्य श्री धनऋषि जी म० की उपस्थिति में सन्त सतियों ने एकत्रित होकर समाचारी रचना की थी। (उस समय ऋषि सम्प्रदाय में करीब १२५ सन्त और १५० सतियाँ विचरती थीं)। इनके ज्ञान और चारित्रिक धर्म से प्रभावित होकर सभी सन्त सतियों में आपको अग्रणी रखा और प्रवर्तिनी के पद से सुशोभित किया । आपकी २७ शिष्यायें हुई थीं। उनमें से लिखित चार सतियां जी के नाम उपलब्ध होते हैं
१. महासती श्री सरदाराजी म०, २. श्री धन कँवरजी म० ३. श्री दयाजी म०,४. लक्षमाजी म०
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