Book Title: Anandrushi Abhinandan Granth
Author(s): Vijaymuni Shastri, Devendramuni
Publisher: Maharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
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ऋषि सम्प्रदाय के पाँच सौ वर्ष
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पूज्यपाद श्री रत्नऋषि जी महाराज
आप वोता (मारवाड़) के मूल निवासी थे। लेकिन आपके पिताश्री स्वरूपचन्द जी (जिन्होंने आपके साथ सं० १६३६ में पूज्य श्री तिलोक ऋषि जी म. के पास भागवती दीक्षा अंगीकार की थी) अहमदनगर जिला के मानक दोंडी ग्राम में व्यापारार्थ रहते थे । वहीं आपकी माताजी श्रीमती धापूबाई का स्वर्गवास हो गया था। अपने परिवार में आप और आपके पिता यही दो सदस्य रह गये थे। माताजी के देहावसान के समय आपकी उम्र करीब १२ वर्ष की थी। आपके पिताजी संसार से उदासीन जैसे रहते थे और पुत्र को सुयोग्य बनाने की भावना रखते थे।
इन्हीं दिनों सं० १६३५ में पूज्य श्री तिलोक ऋषि जी म० के धोड़नदी पधारने के समाचार मिले और इससे आपके पिताजी के हर्ष का पार न रहा और अपने पुत्र के साथ धोड़नदी आ गये और वहीं अपना निवास स्थान बनाकर रहने लगे।
सं० १९३६ में श्री गम्भीरमल जी लोढ़ा की धर्मपत्नी और पुत्री की घोड़नदी में भागवती दीक्षा हुई । आपके पिता श्री स्वरूपचन्द जी भी विरक्त थे ही और वे भी दीक्षा लेने के लिए तत्पर हुये। आप भी पिताश्री के अनुगामी बनने के लिए अग्रसर हो गये। पिता-पुत्र ने पूज्यपाद श्री त्रिलोक ऋषि जी म० के समक्ष अपनी भावना व्यक्त की । कुटुम्बी जनों ने अनेक प्रलोभन दिये लेकिन उन्हें दीक्षित होने से विचलित नहीं कर सके । अन्त में उन्होंने पिता व पुत्र को दीक्षा अंगीकार करने की स्वीकृति दे दी और सं० १६३६ आषाढ़ शु० ई० ६ को दोनों की भागवती दीक्षा सम्पन्न हुई। श्री स्वरूपचन्द जी का नाम श्री स्वरूप ऋषि जी म० और आपका नाम श्री रत्नऋषि जी म० रखा गया।
आपको दीक्षित हुए चार वर्ष भी नहीं हुए थे कि गुरुदेव श्री तिलोक ऋषि जी म० का सं० १९४० में स्वर्गवास हो गया। श्री रत्नऋषि जी म० युवा थे, प्रतिभाशाली और विद्वान थे, लेकिन उन दिनों दक्षिण में दूसरे विद्वान संतों के न रहने से आपको लेकर महासती श्री हीरा जी मालवा में आई और योग्य शिक्षा का प्रबन्ध कराया और शुजालपुर में विराजमान स्थविर मुनिश्री खूबऋषि जी म० के पास रहकर शास्त्राभ्यास प्रारम्भ कर दिया। शास्त्राभ्यास से आपकी व्याख्यान शैली भी सुन्दर हो गई। मालवा में विहार कर आपने अच्छा शास्त्राभ्यास कर लिया था और प्रवचन शैली में प्रवीण होने से जनसाधारण में भी प्रसिद्ध हो चुके थे। लेकिन आपका लक्ष्य प्रसिद्धि प्राप्त करना नहीं था।
मालवा में विहार करने के अनन्तर आपने गुजरात की ओर विहार किया और वहाँ विराजित अनेक प्रभावशाली विद्वान सन्तों, आचार्यों आदि से आपका सम्पर्क हुआ । गुजरात में कुछ समय विचरने के बाद आप पुनः महाराष्ट्र में पधार गये । महाराष्ट्र में आकर आपने जैन संघ की स्थिति का गम्भीरता से निरीक्षण किया । यद्यपि आर्थिक दृष्टि से जैन समाज की स्थिति साधारणतया ठीक थी, लेकिन अंधश्रद्धा, अशिक्षा और बेकारी के कारण जैन नवयुवकों में शून्यता फैल रही थी । अनेक क्षेत्रों में विहार और चातुर्मास होने से सब कुछ जानकारी कर ली गई थी। इसके प्रतिकार के लिए आपने सं० १९७७ के
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आचार्यप्रवभिभापार्यप्रवास आभार श्राआनन्द श्रीआनन्
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