Book Title: Anandrushi Abhinandan Granth
Author(s): Vijaymuni Shastri, Devendramuni
Publisher: Maharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
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जैन श्रमण संघ : समीक्षात्मक परिशीलन
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श्रमण का जीवन वस्तुत: कायिक, वाचिक और मानसिक शुद्धि का जीवन है। यदि उसमें कर्म और वचन की पवित्रता न रहे तो वह शोभित नहीं होता । जो श्रमण उक्त प्रवृत्तियों द्वारा दूषित बनता जाता है, उसकी साख बिगड़ जाती है। वह कितना ही बड़ा पण्डित और ज्ञानी क्यों न हो, वस्तुतः उसके द्वारा धर्म या संघ का यथार्थ उत्कर्ष सधता नहीं, अपितु अपकर्ष होता है । अतएव ऐसे व्यक्ति को आचार्य, उपाध्याय आदि किसी भी पद के लिए योग्य नहीं माना गया।
संघ में आचार्य का स्थान अप्रतिम गरिमामय है। उसकी महत्ता और पवित्रता सदा अव्याहत रहे, इसी ओर जैन परम्परा में सदैव जागरूकता बरती जाती रही है। व्यवहार-सूत्र में इस सम्बन्ध में एक स्थान पर बड़ा मार्मिक विवेचन मिलता है। कहा गया है कि संयोगवश कोई आचार्य-उपाध्याय अत्यन्त रुग्ण हों, उनको अपनी मृत्यु सन्निकट लगे और तब तक वे अपने उत्तराधिकारी का मनोनयन न कर सके हों, तो वे उन साधुओं को जो उनके पास हों, कहें कि उनका आयुष्य पूर्ण होने पर अमुक साधु जो इस पद के योग्य है, को पद-प्रतिष्ठित कर दीजियेगा । यहाँ आचार्य और उपाध्याय इन दोनों नामों का जो उल्लेख है, उसका आशय ऐसे आचार्य से प्रतीत होता है, जिनके पास आचार्य पद के साथ-साथ उपाध्याय पद भी हो । अस्तु संयोगवश आचार्य कालधर्म को प्राप्त हो जाते हैं। जिन श्रमणों को उनका इंगित किया हुआ होता है, वे आचार्य द्वारा निर्दिष्ट श्रमण की परीक्षा करें। उन्हें लगे कि वह व्यक्ति पद की गरिमा को वहन करने में सक्षम है, पद के उत्तरदायित्वों को भलीभांति सम्हाल सकेगा तो उसे उक्त पद पर अधिष्ठित करें। यदि ऐसा लगे कि उसमें पद-निर्वाह की योग्यता नहीं है तो ऐसे किसी दूसरे व्यक्ति का मनोनयन करें, जो उसके योग्य प्रतीत हो । साथ ही साथ इसमें एक विकल्प और है । जो दूसरा योग्य प्रतीत हो, उसको यदि आचारांग और निशीथ का अध्ययन न हो तो उन्हें (श्रमणों को) चाहिए कि जब तक वह श्रमण आचारांग और निशीथ का अध्ययन न कर ले, तब तक के लिए वे उस व्यक्ति को पद दें, जिसके लिए दिवंगत आचार्य निर्देश कर गये हों। पर उसको वे यह बतला दें कि जब तक उक्त (दूसरा) श्रमण अध्ययन न कर ले, तब तक के लिए वह उस पद का अधिकारी है। दूसरे श्रमण के अध्ययन कर चुकने पर पद उसे सौंप देना होगा। तदनन्तर जब वह दूसरा श्रमण पढ़ कर योग्य हो जाये, तब वे अस्थायी रूप से आचार्य-पद पर अधिष्ठित किये गये व्यक्ति से वह पद पूर्वनिश्चयानुसार उसे सौंप देने के लिए कहें। इस पर यदि पदासीन श्रमण पद न छोड़े तो संघ के श्रमणों को चाहिए कि वे खुल्लमखुल्ला उससे पद छोड़ने के लिए कहें, उस पर जोर डालें कि वह पद का वास्तविक अधिकारी नहीं है। यों सुन कर यदि आचार्य-पदासीन व्यक्ति अपना पद विसजित कर दे तो उसे कोई प्रायश्चित्त नहीं आता । यदि पद का विसर्जन न करे तो वह प्रायश्चित्त का भागी होता है।
जैन परम्परा में आचार्य द्वारा उत्तराधिकारी मनोनीत किये जाने के रूप में एकतन्त्रीय शासन प्रणाली की प्रधानता थी पर उसमें एकान्तिकता या निरंकुशता नहीं थी । जहाँ आचार्य का निर्णय सर्वोपरि होता था, वहाँ उस पर चिन्तन करने की भी गुजायश थी। सामष्टिक रूप में विवेक की कसौटी पर कसे
१. व्यवहार सूत्र, उद्देशक, ४ सूत्र १३
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