Book Title: Anandrushi Abhinandan Granth
Author(s): Vijaymuni Shastri, Devendramuni
Publisher: Maharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
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काल
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पुरातत्त्व मीमांसा १७१ इसलिए भारतीय पुरातत्त्वज्ञों को इस लिपि के ज्ञान की विशेष आवश्यकता थी। कर्नल जेम्स टॉड ने । वाक्ट्रिअन, ग्रीक, शक, पार्थिअन् और कुशानवंशी राजाओं के सिक्कों का एक बड़ा संग्रह किया था। इन सिक्कों पर एक ओर ग्रीक और दूसरी ओर खरोष्ठी अक्षर लिखे हुए थे। सन् १८३० ई० में जनरल बेंटुरों ने मानिकिआल स्तूप को खुदवाया तो उसमें से खरोष्ठी लिपि के कितने ही सिक्के और दो लेख प्राप्त हुए । इसके अतिरिक्त अलेक्जेण्डर, बन्स् आदि प्राचीन शोधकों ने भी ऐसे अनेक सिक्के इकट्ठे किये थे जिनमें एक ओर के ग्रीक अक्षर तो पढ़े जा सकते थे परन्तु दूसरी ओर के खरोष्ठी अक्षरों के पढ़े जाने का कोई साधन नहीं था। इन अक्षरों के विषय में भिन्न-भिन्न कल्पनाएँ होने लगीं। सन् १८२४ ई० में कर्नल टॉड ने कफिसे स् के सिक्के पर खुदे इन अक्षरों को 'ससेनिअन्' अक्षर बतलाया। १८३३ ई० में अपोलोडोट्स के सिक्के पर इन्हीं अक्षरों को प्रिंसेप ने “पहलवी" अक्षर माने। इसी प्रकार एक दूसरे सिक्के की इसी लिपि तथा मानिकिऑल के लेख की लिपि को उन्होंने ब्राह्मी लिपि मान लिया और इसकी आकृति कुछ टेढ़ी होने के कारण अनुमान लगाया कि जिस प्रकार छपी हई और बही में लिखी हई गुजराती लिपि में अन्तर है उसी प्रकार अशोक के दिल्ली आदि के स्तम्भों वाली और इस लिपि में अन्तर है परन्तु, बाद में स्वयं प्रिंसेप ही इस अनुमान को अनुचित मानने लगे। सन् १८३४ ई० में केप्टन कोर्ट को एक स्तूप में से इसी लिपि का एक लेख मिला जिसको देखकर प्रिंसेप ने फिर इन अक्षरों के विषय में 'पहलवी' होने की कल्पना की । परन्तु उसी वर्ष में मिस्टर मेसन नामक शोध कर्ता विद्वान ने अनेक ऐसे सिक्के प्राप्त किये जिन पर खरोष्ठी और ग्रीक दोनों लिपियों में राजाओं के नाम अंकित थे। मेसन साहब ने ही सबसे पहले मिडौ, आपोलडोटो, अरमाइओ, वासिलिओ और सोटरो आदि नामों को पढ़ा था, परन्तु यह उनकी कल्पनामात्र थी। उन्होंने इन नामों को प्रिंसेप साहब के पास में भेजा । इस कल्पना को सत्य का रूप देने का यश प्रिंसेप के ही भाग्य में लिखा था। उन्होंने मेसन साहब के संकेतों के अनुसार सिक्कों को बांचना आरम्भ किया तो उनमें से बारह राजाओं और सात पदवियों के नाम पढ़ निकाले।
इस प्रकार खरोष्ठी लिपि के बहत से अक्षरों का बोध हुआ और साथ ही यह भी ज्ञात हुआ कि यह लिपि दाहिनी ओर से बांई ओर पढ़ी जाती है। इससे यह भी निश्चय हुआ कि यह लिपि सेमेटिक वर्ग की है, परन्तु इसके साथ ही इसकी भाषा को, जो वास्तव में ब्राह्मी लेखों की भाषा के समान प्राकृत है, पहलवी मान लेने की भूल हुई । इस प्रकार ग्रीक लेखों की सहायता से खरोष्ठी लिपि के बहत से अक्षरों की तो जानकारी हुई परन्तु भाषा के विषय में भ्रान्ति होने के कारण पहलवी के नियमों को ध्यान में रखकर पढ़ने से अक्षरों को पहचानने में अशुद्धता आने लगी जिससे थोड़े समय तक इस कार्य में अड़चन पड़ती रही। परन्तु १८३८ ई० में दो बाक्ट्रिअन् ग्रीक सिक्कों पर पालि लेखों को देखकर दूसरे सिक्कों की भाषा भी यही होगी यह मानते हुए उसी के नियमानुसार उन लेखों को पढ़ने से प्रिसेप का काम आगे चला और उन्होंने एक साथ १७ अक्षरों को खोज निकाला। प्रिंसेप की तरह मिस्टर नॉरिस ने भी इस विषय में कितना ही काम किया और इस लिपि के ७ नये अक्षरों की शोध की। बाकी के थोड़े से अक्षरों को जनरल कनिङ्घम ने पहचान लिया और इस प्रकार खरोष्ठी की सम्पूर्ण वर्णमाला तैयार हो गई।
यह भारतवर्ष की पुरानी से पुरानी लिपियों के ज्ञान प्राप्त करने का संक्षिप्त इतिहास है । उपर्युक्त
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आचाफ्रिजमायाफ्राशाजनक श्रीआनन्द अनादीन्दा अशा
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