Book Title: Anandrushi Abhinandan Granth
Author(s): Vijaymuni Shastri, Devendramuni
Publisher: Maharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
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२०६ इतिहास और संस्कृति जीवित बच गई किन्तु उसमें भी वह सजीवता और स्वाभाविकता नहीं रही, जिसके दर्शन हमें प्रारम्भिक युगों में होते रहे हैं । पाषाण और धातु की अनेक जैन-मूर्तियाँ तेरहवीं से अठारहवीं शताद्वी तक की हैं, जिनमें अनेक पर अभिलेख भी हैं, इनमें प्रायः विक्रम संवत के साथ दातारों के नाम, गोत्र, कुल आदि का परिचय भी है।
उत्तर-भारत में तो बहुत ही कम ऐसे प्राचीन स्थान होगे, जहाँ जन-कला के अवशेष न हों। विजनौर जिले का पारसनाथ किला ही कई मीलों तक विस्तृत अरण्य-प्रदेश बना पड़ा है। इसमें ही कितनी जैन-कलाकृतियां विखरी पड़ी हैं। बुदेलखण्ड और राजस्थान के इलाकों में ही चारों ओर मूर्तियाँ इधर उधर लावारिस रूप में विखरी पड़ी हैं। इन अमूल्य निधियों को जैन-ध्वंसावेशों को एकत्र करना, इनकी सुरक्षा करना परम आवश्यक है। अभी भी बहुत सामग्री धरती के गर्भ में है।
वर्तमान मथुरा और जैन-धर्मः-वर्तमान 'मथुरा' नगर का सर्व प्रधान-तीर्थ चौरासी है। चौरासी अन्तिम केवली भगवान श्री जम्बूस्वामी की निर्वाण-भूमि है । अन्तिम तीर्थंकर महावीर के पश्चात् केवल तीन केवली हुए, प्रथम गौतम गणधर (इन्द्रभूति) का कैवल्य-काल १२ वर्ष रहा । दूसरे केवली भगवान सुधर्मा स्वामी थे, इनका भी कैवल्य-काल १२ वर्ष ही रहा । तीसरे केवली भगवान 'जम्बूस्वामी' का कैवल्य-काल ३८ वर्ष रहा । इस प्रकार भगवान महावीर के पश्चात् ६२ वर्षों में तीन केवली भगवान् हए । केवली भगवान श्री जम्बूस्वामी का निर्वाण आज से २४३७ वर्ष पूर्व इसी चौरासी क्षेत्र में हुआ है।
ऐसा प्रख्यात है कि उस काल में इस क्षेत्र पर ७२ वन और १२ उपवन थे। कुल मिलाकर ८४ होने के कारण ही इसे चौरासी कहा जाता था। यह भी प्रसिद्ध है कि केवली भगवान श्री जम्बूस्वामी का ५४ वर्ष की आयु में निर्वाण हुआ, इसीलिए यह क्षेत्र चौरासी कहलाया। कुछ ठोस प्रमाण के आधार पर ८४ नाम की प्रामाणिकता उपलब्ध नहीं है।
काल के थपेड़ों ने इस स्थल को 'श्री हीन बना दिया था। दोसौ वर्षों पूर्व यहाँ केवल एक टूटी सी छतरी और एक वेर का वृक्ष ही इस क्षेत्र की सम्पदा रह गये थे। नगरसेठ श्री लक्ष्मीचन्द्रजी के मुनीम 'श्री मनीराम' जी ने यहाँ एक विशाल-मन्दिर निर्माण कराया है।
'वृन्दावन' के मार्ग में 'धौरेरहा' स्थल से तेइसवें ती० श्री पार्श्वनाथ' की दो हजार वर्ष प्राचीन प्रतिमा वि० सं० १८६ की पं० हुकुमचन्द्र जी को प्राप्त हुई थी, जो यहाँ विराजमान है। दूसरी प्रतिमा द्वितीय जैन ती० श्री 'अजितनाथ' की है । यह ग्वालियर की खुदाई में प्राप्त हुई है। इतनी बड़ी खड़गासन प्रतिमा सम्भवतः भारतवर्ष में अन्यत्र नहीं है। दोनों प्रतिमाएँ अतिशय प्रधान होने के कारण ही इस क्षेत्र-भूमि को अतिशय-क्षेत्र कहा जाता है।
'मथुरा' की अतीतातीत-काल से जन-धर्म और कला को जो देन रही है, उससे यह ज्ञात होता है कि-उस क्षेत्र में अभी भी उत्खनन और संग्रह की शोध में अनेक वस्तुएँ ऐसी प्राप्त होंगी जो जैन-धर्म के अस्तित्व को और भी प्राचीनकाल तक पहुंचायेंगी । इस वर्ष भगवान श्री महावीर के पच्चीससौवें निर्वाण-महोत्सव के कार्यक्रम के अन्तर्गत जैनों का एक बड़ा शोध संस्थान (पूर्ण भारत वर्ष की एक संस्था) स्थापित कर वहाँ पुरातत्त्वविदों का सहयोग प्राप्त कर जिधर-जिधर हमारे बिखरे अवशेष हैं, उन्हें एकत्र किया जाना आवश्यक है।
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