Book Title: Anandrushi Abhinandan Granth
Author(s): Vijaymuni Shastri, Devendramuni
Publisher: Maharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
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पुरातत्त्व मीमांसा
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प्रकार इस विषय में भी वही बात हई। कुछ भी हआ हो, यह तो निश्चित है कि मेजर विल्फोर्ड के नाम से कहलाने वाली सम्पूर्ण खोज भ्रमपूर्ण थी । क्योंकि उनका पढ़ा हुआ लेखपाठ कल्पित था और तदनुसार उसका अनूवाद भी वैसा ही निर्मल था-युधिष्ठिर और पाण्डवों के वनवास एवं निर्जन जंगलों में परिभ्रमण की गाथाओं को लेकर ऐसा गड़बड़ गोटाला किया गया है कि कुछ समझ में नहीं आता। उस धर्त ब्राह्मण के बताए हए ऊटपटाँग अर्थ का अनुसंधान करने के लिए विल्फोर्ड ने ऐसी कल्पना कर ली थी। कि पाण्डव अपने वनवास काल में किसी भी मनुष्य के संसर्ग में न आने के लिए वचनबद्ध थे। इसलिए विदुर, व्यास आदि उनके स्नेही सम्बन्धियों ने उनको सावधान करने की सूचना देते रहने के लिए ऐसी योजना की थी कि वे जंङ्गलों में, पत्थरों और शिलाओं (चट्टानों) पर थोड़े-थोड़े और साधारणतया समझ में न आने योग्य वाक्य पहले ही से निश्चित की हुई लिपि में सकेत रूप से लिख-लिखकर अपना उद्देश्य पूरा करते रहते थे । अंग्रेज लोग अपने को बहुत बुद्धिमान मानते हैं और हँसते-हँसते दुनिया के दूसरे लोगों को ठगने की कला उनको याद है परन्तु वे भी एक बार तो भारतवर्ष की स्वर्गपुरी मानी जाने वाली काशी के 'वृद्ध गुरू' के जाल में फंस ही गए, अस्तु एशियाटिक सोसाइटी के पास दिल्ली और इलाहाबाद के स्तम्भों तथा खण्डगिरि के दरवाजों पर के लेखों की नकलें एकत्रित थीं परन्तु विल्फोर्ड साहब की 'शोध' निष्फल चली जाने के कारण कितने ही वर्षों तक उनके पढ़ने का कोई प्रयत्न नहीं हुआ। इन लेखों के मर्म को जानने की उत्कट जिज्ञासा को लिए हुए मिस्टर जेम्स प्रिंसेप ने.१८३४-३५ ई० इलाहाबाद, रधिया और मथिआ के स्तम्भों पर उत्कीर्ण लेखों की छापें मँगवाई और उनको दिल्ली के लेख के साथ रखकर यह जानने का प्रयत्न किया कि उनमें कोई सरीखा है या नहीं। इस प्रकार उन चारों लेखों को पास-पास रखने से उनको तुरंत ज्ञान हो गया कि ये चारों लेख एक ही प्रकार के हैं । इससे प्रिसेप का उत्साह बढ़ा और उनकी जिज्ञासापूर्ण होने की आशा बँध गई। इसके पश्चात उन्होंने इलाहाबाद स्तम्भ के लेख के भिन्न-भिन्न आकृति वाले अक्षरों को अलग-अलग छाँट लिया। इससे उनको यह बात मालूम हो गई कि गुप्तलिपि के अक्षरों की भांति इसमें भी कितने ही अक्षरों के साथ स्वरों की मात्राओं के भिन्न-भिन्न पाँच चिन्ह लगे हुए हैं। इसके बाद उन्होंने पाँचों चिन्हों को एकत्रित करके प्रकट किया। इससे कितने ही विद्वानों का इन अक्षरों के यूनानी अक्षर होने सम्बन्धी भ्रम दूर हो गया ।
अशोक के लेखों की लिपि को देखकर साधारणतया अंग्रेजी अथवा ग्रीक लिपि की भ्रान्ति उत्पन्न हो जाती है। टॉम कोरिएट नामक यात्री ने अशोक के दिल्ली वाले स्तम्भलेख को देखकर एल व्हीटर को पत्र में लिखा था "मैं इस देश के दिल्ली नाम 6 नगर में आया हूँ कि जहाँ पहले अलैजॅण्डर ने हिन्दुस्तान के पोरस नामक राजा को हराया था और अपनी विजय की स्मति में एक विशाल स्तम्भ खड़ा किया था जो आज भी यहां पर मौजूद है।" पादरी एडवर्ड टेरी ने लिखा है कि "टाम कोरिएट ने मुझे कहा था कि उसने दिल्ली में ग्रीक लेख वाला एक स्तम्भ देखा था जो अलेक्जण्डर महान् की स्मृति में वहाँ पर खड़ा किया गया था।" इस प्रकार दूसरे भी कितने ही लेखकों ने इस लेख को ग्रीक लेख ही माना था।
उपर्युक्त प्रकार से स्वर चिन्हों को पहचान लेने के बाद मि० जेम्स प्रिसेंप ने अक्षरों को पहचानने
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प्रभाव आनन प्राआनन्दग्रन्थश्राआनन्दअन्य
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