Book Title: Anandrushi Abhinandan Granth
Author(s): Vijaymuni Shastri, Devendramuni
Publisher: Maharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
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जैन संस्कृति में संगीत का स्थान
१८५
(१) पूर्ण-स्वर, लय और कला से युक्त गायन । (२) रक्त-पूर्ण तल्लीनतापूर्वक गायन । (३) अलंकृत-स्वर विशेष से अलंकृत गायन । (४) व्यक्त-स्पष्ट रूप से गायन, जिससे स्वर और अक्षर स्पष्ट ज्ञात हो सकें। (५) अविघुष्ट—अविपरीत स्वर से गायन । (६) मधुर--कोकिल जैसा मधुर गायन । (७) सम-तालवंश तथा स्वर से समत्व गायन ।
(८) सुललित-कोमल स्वर से गायन । स्थानाङ्ग में संगीत-कला के आठ अन्य गुण भी बतलाये गये हैं, यथा
'उरकंठ सिरपसत्थं च, गेज्जं ते मउरिभिअपदबद्ध ।
समतालपडुक्खेवं सत्तसर सोहर गीयं ॥ ७/३/२५ अर्थात् 'उरोविशुद्ध, कण्ठविशुद्ध, शिरोविशुद्ध, मृदुक, रिङ्गित, पदबद्ध, समताल और सप्तस्वरसीमर-ये आठ गुण गायन में होते हैं।
अनुयोगद्वार के अनुसार अक्षरादि सम सात प्रकार के होते हैं, यथा-अक्षरसम, पदसम, तालसम, लय सम, ग्रहसम, निश्वसितोच्छ्वसितसम, संचारसम । स्थानाङ्ग में गेयगीत के अन्य आठ गुण इस प्रकार बताये हैं
निहोसं सारवंतं च हेउजुत्तमलंकियं ।
उवणीय सोवयारं च, मियं मधुरमेव य ॥ अर्थात् 'निर्दोष, सारवन्त, हेतुयुक्त, अलंकृत, उपनीत, सोपचार, मित और मधुर ।' स्थानाङ्ग में सप्तस्वरों का सुन्दर विवेचन मिलता है। ये सप्तस्वर इस प्रकार हैं(१) षड्ज-जो नासिका, कण्ठ, छाती, तालु, जिला और दाँत इन छह स्थानों से उत्पन्न
होता है। (२) वृषभ-जब वायु नाभि से उत्पन्न होकर कण्ठ और मूर्धा से टक्कर खाकर वृषभ के
शब्द की तरह निकलता है। (३) गांधार-जब वायु नाभि से उत्पन्न होकर हृदय और कण्ठ को स्पर्श करता हुआ
सगन्ध निकलता है। (४) मध्यम- जो शब्द नाभि से उत्पन्न होकर हृदय से टक्कर खाकर पुनः नाभि में पहुंच
जाता है अर्थात् अन्दर ही अन्दर गूंजता रहता है। (५) पञ्चम–नाभि, हृदय, छाती, कण्ठ और सिर, इन पाँच स्थानों से उत्पन्न होने
वाला स्वर। (६) धंवत-अन्य सभी स्वरों का जिसमें सम्मिश्रण हो, इसका अपर नाम रैवत है।
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