Book Title: Anandrushi Abhinandan Granth
Author(s): Vijaymuni Shastri, Devendramuni
Publisher: Maharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
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१८६ इतिहास और संस्कृति
(७) निषाद---जो स्वर अपने तेज से अन्य स्वरों को दबा देता है और जिसका देवता
सूर्य हो। स्थानांग अभयदेव वत्ति में इन सप्तस्वरों की व्याख्या संस्कृत श्लोकों में की गई है। स्थानांग में स्वर परिज्ञान भी है यथा-मयूर षड़जस्वर में आलापता है, कुक्कुट ऋषभ स्वर में बोलते हैं, हंस के स्वर से गांधार ध्वनि निश्रत होती है । गवेलक के स्वर से मध्यम, कोयल के स्वर से पंचम, सारस और क्रौंच के स्वर से धैवत तथा अंकुश से प्रताडित हस्ती की चिंघाड़ से निषाद स्वर परिज्ञात होता है। इसी प्रकार अचेतन पदार्थों से भी सप्तस्वरों का परिज्ञान होता है, यथा ढोल से षड्ज, गोमुखी से वृषभ, शंख से गांधार, झल्लरी से मध्यम, तबले से पंचम, नगाड़े से धैवत और महाभेरी से निषाद स्वर जाना जाता है।
___ आगमों में इन स्वरों का फल भी बताया गया है। स्थानांग में लिखा है कि जो मानव षड़जस्वर से बोलता है, वह आजीविका प्राप्त करता है। उसके प्रत्येक कार्य सिद्ध होते हैं। उसे गायें, पुत्र तथा मित्र प्राप्त होते हैं तथा वह कान्ताप्रिय होता है । वृषभ स्वर का प्रयोग करने वाला ऐश्वर्य, सेना, सन्तान, धन, वस्त्र, अलंकार आदि प्राप्त करता है। गांधार स्वर से गाने वाला आजीविका के सभी साधन उपलब्ध करता है, तथा अन्य कलाओं का भी ज्ञाता होता। मध्यम स्वर से गाने वाला सुखी जीवन व्यतीत करता है। पञ्चम स्वर से गाने वाला पृथ्वीपति, बहादुर, सग्राहक और गुणज्ञ होता है । रैवत स्वर से गाने वाला दुःखी, प्रकृति का नीच और अनार्य होता है । वह प्रायः शिकारी, तस्कर और मल्लयुद्ध करने वाला होता है । निषाद स्वर से गाने वाला कलहप्रिय, घुमक्कड़, भारवाही, चोर, गोघातक और आवारा होता है।
स्थानांग में सप्तस्वरों के तीन ग्रामों का विशद वर्णन मिलता है। ये तीन ग्राम इस प्रकार हैं(१) षड्जग्राम (२) मध्यमग्राम (३) गांधारग्राम । इन तीनों ग्रामों में प्रत्येक में सात-सात मुर्छनाएँ होती हैं । इस प्रकार कुल इक्कीस मूर्च्छनाएँ होती हैं।
स्थानांग और अनुयोगद्वार के आधार पर ही पार्श्वदेव ने 'संगीतसार' और सुधाकलश ने 'संगीतोपनिषद्' का निर्माण किया ।
इस प्रकार जैनागमों में संगीत का विशद विवेचन मिलता है । जैन संगीत का चरम लक्ष्य मोक्षमार्ग है। उसमें त्याग-वैराग्य की भव्य भावना को प्रमुख स्थान दिया गया है। जैन-संगीत धर्मशिक्षा का एक अंग रहा है। भक्ति और अध्यात्म दोनों ही क्षेत्रों में इसका समान महत्व रहा है।
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