Book Title: Anandrushi Abhinandan Granth
Author(s): Vijaymuni Shastri, Devendramuni
Publisher: Maharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
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इतिहास और संस्कृति
जाने पर यदि उसमें परिवर्तन करना आवश्यक होता तो श्रमण-समुदाय वैसा करना अनुचित नहीं मानता, वैसा करता, पर ऐसी स्थितियाँ कदाचित्क होतीं, बहुत कम आती क्योंकि आचार्य निःस्वार्थ और निर्मोहभाव से निर्णय लेते थे । उसमें अपवाद बहुत कम होता।
जैसा कि पहले विवेचन हुआ है, यह एक ऐसी स्वस्थ एकतन्त्रीय परम्परा थी, जिसमें अधिनायक के प्रति समग्र श्रद्धा और विश्वास के बावजूद निर्लेप और उन्मुक्त चिन्तन के लिए निर्बाध स्थान था। इसी का यह परिणाम रहा कि जैन संघीय व्यवस्था में संकीर्ण स्वार्थपरता और हीनता नहीं आने पाई । यद्यपि समय-समय पर अनेक प्रकार के परिवर्तन तो आये पर वे मौलिक रूप पर आघात करने वाले नहीं बने ।
जैन श्रमण संघ के दो भाग थे-श्रमण-समूह और श्रमणी-समूह । मौलिक नियम दोनों के लिए एक से थे, व्यवस्था-क्रम भी दोनों के लिए समान रूप से लागू था । पर, श्रमणीवृन्द की दैनन्दिन व्यवस्था की समीचीनता के लिए उनमें भी प्रवतिनी, स्थविरा तथा गणावच्छेदिका के पद निर्धारित थे । समलैगिकता के नाते श्रमणियों की व्यवस्था में इससे अपेक्षाकृत अधिक सुविधा रहती है । इसके अतिरिक्त श्रमणों और श्रमणियों के अति सम्पर्क का अवसर भी, जो अवाञ्छनीय है, इससे नहीं बनता।
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