Book Title: Anandrushi Abhinandan Granth
Author(s): Vijaymuni Shastri, Devendramuni
Publisher: Maharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
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इतिहास और संस्कृति
लेने का निश्चय व्यक्त करे, वह आचार्य या उपाध्याय के पद के लिए कल्पनीय है-उसे ये पद सौंपे जा सकते हैं। परन्तु अपने निश्चय के अनुरूप यदि वह उक्त अंश पढ़ नहीं पाए तो इन पदों का अधिकारी नहीं रह सकता। श्रमण-चर्या
श्रमण जीवनोचित आचार को सूक्ष्मता से जानने-समझने तथा पालने के लिए आचारांग और निशीथ को आत्मसात् करना प्रत्येक श्रमण के लिए बहुत आवश्यक है। आचार्य स्वयं आचार के जीवित प्रतीक होते हैं, अन्तेवासियों को आचार-पालनार्थ उत्प्रेरित करते हैं। स्वयं आचार पालना, औरों से पालन करवाना यह आचार्य के कर्तव्यों में से मुख्य कर्तव्य है । अतएव श्रमण-आचार का स्वरूप और सार बताने वाले वाङमय को आत्मसात् करना आचार्य के लिए परम आवश्यक है। दूसरे शब्दों में यह अनिवार्य करणीयता है । व्यवहार-सूत्र के उक्त विवेचन का इंगित इसी ओर है।
जैन धर्म में आचार का सर्वोच्च स्थान है। कितना ही बड़ा ज्ञानी क्यों न हो, आचार के बिना उसका ज्ञान सार्थक नहीं है । उसे भार से अधिक क्या कहें, आचार्य, उपाध्याय आदि महत्त्वपूर्ण पदों पर आने की पहली योग्यता निर्मल आचरण है । वर्तमान में तो आचार पूर्णतया परिशुद्ध और उज्ज्वल होना ही चाहिए, जीवन के पिछले भाग में भी उसमें पवित्रता रही हो, यह अपेक्षित है। अतएव इस प्रसंग में व्यवहार सूत्र में यहाँ तक निर्देश है कि श्रमण के रूप में रहते हुए यदि किसी ने व्यभिचार का सेवन कर लिया और साधु-जीवन से पृथक् हो गया, फिर पुनः प्रायश्चित्त आदि कर वह श्रमण-जीवन में आ गया, ऐसा व्यक्ति जीवन में कभी भी आचार्य, उपाध्याय, प्रवर्तक, स्थविर, गणी तथा गणावच्छेदक के पद पर आने का अधिकारी नहीं है। उसे यावज्जीवन कभी इनमें से किसी भी पद पर प्रतिष्ठित नहीं किया जा सकता। क्योंकि श्रमण के वेष में रहते हुए व्यभिचार सेवन कर वह अपने श्रामण्य की पवित्रता और उज्ज्वलता पर एक ऐसा धब्बा लगा देता है, जो अत्यन्त दुषणीय है। ऐसे व्यक्ति को आचार्य आदि पदों पर मनोनीत कर देने से धर्म-शासन की अवहेलना होती है, उससे लोगों की आस्था हटती है।
जिस प्रकार साधु के लिए अब्रह्मचर्य-सेवन अत्यन्त जघन्य कार्य है. उसी प्रकार असत्य, प्रवंचना एवं छल भी उसके लिए सर्वथा परिहेय है। व्यवहार सूत्र में इस पहलू को दृष्टि में रखते हुए कहा गया है कि जो भिक्षु बहुश्रुत हो, उत्कृष्टतया दश पूर्व तक के ज्ञान का संवाहक हो, परम विद्वान् हो, पर किन्हीं अनिवार्य कारणों के उपस्थित होने पर भी यदि वह माया का आचरण करता है, मृषावाद का प्रयोग करता है, उत्सूत्र को प्ररूपणा करता है तथा पापोपजीवी होता है अर्थात् पापपूर्ण जीविका का आश्रय लेता है, वह जीवन भर के लिए आचार्य, उपाध्याय, प्रवर्तक, स्थविर, गणी या गणावच्छेदक पद का पात्र नहीं हो सकता।
१. व्यवहार सूत्र, उद्देशक ३, सूत्र १० २. व्यवहार सूत्र, उद्देशक ३, सूत्र १३ ३. व्यवहार सूत्र, उद्देशक ३, सूत्र २६
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