Book Title: Anandrushi Abhinandan Granth
Author(s): Vijaymuni Shastri, Devendramuni
Publisher: Maharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
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जैन श्रमण संघ : समीक्षात्मक परिशीलन १४३ प्रतिजागृत रखने वाला अर्थात् उनके संयम- जीवन के सम्यक् निर्वहण में सदा प्रेरणा, मार्गदर्शन एवं आध्यात्मिक सहयोग करने वाला श्रमण गणधर कहा जाता है ।
आर्या-प्रतिजागरक के अर्थ में प्रयुक्त गणधर शब्द से प्रकट होता है कि संघ में श्रमणी - वृन्द की समीचीन व्यवस्था, विकास, अध्यात्म-साधना में उत्तरोत्तर प्रगति इत्यादि पर पूरा ध्यान दिया जाता था । यही कारण है कि उनकी देखरेख और मार्गदर्शन के कार्य को इतना महत्वपूर्ण समझा गया कि एक विशिष्ट श्रमण के मनोनयन में इस पहलू को भी ध्यान में रखा जाता था ।
गणावच्छेदक
इस पद का सम्बन्ध विशेषतः व्यवस्था से है। संघ के सदस्यों का संयम जीवितव्य स्वस्थ एवं कुशल बना रहे, साधु-जीवन के निर्वाह हेतु अपेक्षित उपकरण साधु-समुदाय को निरवद्य रूप में मिलते रहें इत्यादि संघीय आवश्यकताओं की पूर्ति का उत्तरदायित्य या कर्तव्य गणावच्छेदक का होता है । उनके सम्बन्ध में लिखा है
जो संघको सहारा देने, उसे दृढ़ बनाये रखने अथवा संघ के श्रमणों की संयमयात्रा के सम्यक् निर्वाह के लिए उपधि - श्रमण - जीवन के लिए आवश्यक सामग्री की गवेषणा करने के निमित्त विहार करते हैं—पर्यटन करते हैं, प्रयत्नशील रहते हैं, वे गणावच्छेदक होते हैं । "
श्रामण्य - निर्वाह के लिए अपेक्षित साधन सामग्री के आकलन, तत्सम्बन्धी व्यवस्था आदि की दृष्टि
से गणावच्छेदक के पद का बहुत बड़ा महत्त्व है । गणावच्छेदक द्वारा आवश्यक उपकरण जुटाने का उत्तरदायित्व सम्हाल लिये जाने से आचार्य का संघ व्यवस्था सम्बन्धी भार काफी हल्का हो जाता है । फलतः उन्हें धर्म-प्रभावना तथा संघोन्नति सम्बन्धी अन्यान्य कार्यों की सम्पन्नता में समय देने की अधिक अनुकूलता प्राप्त रहती है ।
आधार: पृष्ठभूमि
पहले यह चर्चित हुआ है कि जैन परम्परा में पद नियुक्ति का आधार निर्वाचन जैसी कोई वस्तु नहीं थी । वर्तमान आचार्य अपने उत्तराधिकारी आचार्य तथा अन्य पदाधिकारियों का मनोनयन करने के लिए सर्वाधिकार सम्पन्न थे । आज भी वैसा ही है । ज्ञातव्य है कि उत्तराधिकारी आचार्य का मनोनयन तो आवश्यक समझा गया पर दूसरे पदों में से जितनों की, जब आचार्य चाहते, पूर्ति करते । ऐसी अनिवार्यता नहीं थी कि उत्तराधिकारी आचार्य के साथ-साथ अन्य सभी पदों की पूर्ति की जाए । आचार्य चाहते तो अवशेष सभी पदों का कार्य निर्वाह स्वयं करते अथवा उनमें से कुछ का करते, कुछ पर अधिकारी मनोनीत करते । मूलतः समग्र उत्तरदायित्व के आधार स्तम्भ तो आचार्य ही हैं ।
१. गणस्यावच्छेदो विभागोऽशोऽस्यास्तीति ।
यो हि तं गृहीत्वा गच्छोपष्टम्भायवोपधिमार्गणादिनिमित्तं विहरति ।
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आचार्य प्र428 श्री आनन्द
— स्थानांग सूत्र स्थान ४ उद्द ेशक ३ ( वृत्ति)
ग्रन्थ
BBA 30 श्री आनन्द थ
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