Book Title: Anandrushi Abhinandan Granth
Author(s): Vijaymuni Shastri, Devendramuni
Publisher: Maharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
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आयायप्रवल अभिनन्दन आआन
अभिनंदन
इतिहास और संस्कृति
व्यवस्था-सौंदर्य के लिए प्राय: अन्य पदों पर उपयुक्त, योग्य अधिकारियों का मनोनयन भी आचार्य उपयोगी मानते रहे हैं । पर क्रमशः पश्चाद्वर्ती समय में वैसा क्रम पूर्णतया नहीं रहा । कभीकभी केवल आचार्य पद पर अधिष्ठित एक ही व्यक्ति सारा कार्यभार सम्हालते रहे । कभी आचार्य तथा उपाध्याय - दो पद कार्यकर रहे । कभी सातों पदों में से जब जो-जो अपेक्षित समझे गये, तत्कालीन आचार्यों द्वारा भरे गये ।
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कुछ विशिष्ट योग्यताएं
पदों पर मनोनीत किये जाने वाले श्रमणों में कुछ विशेष योग्यताएं वांछनीय समझी गई थीं । असाधारण स्थितियों में कुछ विशेष निर्णय लेने की व्यवस्थाएं भी रही हैं । व्यवहार-सूत्र तथा माध्य में इस सन्दर्भ में बड़ा विशद विवेचन हुआ है, जिसके कतिपय पहलू यहाँ उपस्थित करना उपयोगी होगा । कहा गया है कि जिन श्रमणों, निर्ग्रन्थों को दीक्षा स्वीकार किये आठ वर्ष हो गये हों, जो आचार, संयम, प्रवचन, प्रज्ञा, संग्रह ' तथा उपग्रह ( श्रमणों के परिपोषण) में कुशल हों, जिनका चारित्र अखण्ड, अशबल - अनाचार के धब्बों से रहित अदूषित, अभिन्न- एक जैसा सात्त्विक, असंक्लिष्ट - संक्लेशरहित हो अर्थात जो चारित्र का सम्पूर्ण रूप में आत्मोल्लास पूर्वक पालन करते हों, जो बहुश्रुत
विद्वान हों, जो कम से कम अनिवार्यतः स्थानांगसूत्र और समवायांग सूत्र के धारक - वेत्ता हों, उन्हें आचार्य उपाध्याय, प्रवर्तक, स्थविर, गणी और गणावच्छेदक पद पर अधिष्ठित करना कल्पनीय - - विहित है । इसी को और स्पष्ट करते हुए बतलाया गया है कि जिन श्रमणों में उक्त गुण या विशेषताएँ न हों, उन्हें ये पद देना अकल्पनीय है, ये पद उन्हें नहीं दिये जाने चाहिए ।
पदों के सम्बन्ध में एक विकल्प यों है
जिन श्रमण-निर्ग्रन्थों को दीक्षा स्वीकार किये पाँच वर्ष व्यतीत हो चुके हों, जो आचार, संयम, प्रवचन, प्रज्ञा, संग्रह तथा उपग्रह में कुशल हों, जिनका चारित्र्य अखण्ड, अशबल - अदूषित, अभिन्न- एक जैसा सात्त्विक, असंक्लिष्ट —संक्लेशरहित हो, जो बहुश्रुत और विद्वान हों, जो कम से कम दशाश्रुतस्कन्ध, बृहतकल्प, व्यवहारसूत्र के वेत्ता हों, उनके लिए आचार्य और उपाध्याय का पद कल्पनीय है, उन्हें आचार्य या उपाध्याय के पद पर प्रतिष्ठित करना विहित है । 3
उपाध्याय पद पर मनोनीत किये जाने योग्य श्रमणों का वर्णन करते हुए बतलाया गया है कि जिन श्रमणों, निर्ग्रन्थों को दीक्षा स्वीकार किये तीन वर्ष व्यतीत हो गये हों, जो आचार, संयम, प्रवचन, प्रज्ञा, संग्रह तथा उपग्रह में कुशल हों, जिनका चारित्र अखण्ड, अशबल - अदूषित, अभिन्न- एक जैसा सात्विक, असंक्लिष्ट – संक्लेशरहित हो, जो बहुश्रुत और विद्वान हों, जो कम से कम आचारांग और निशीथ के वेत्ता हों, उन्हें उपाध्याय के पद पद आसीन करना कल्पनीय है ।४
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१. व्यवहार सूत्र उद्देशक ३, सूत्र, ७
२. श्रमणों के विहार के लिए समीचीन क्षेत्र, अपेक्षित उपकरण, उनकी आवश्यकताओं की यथोचित परिपूर्ति |
३. व्यवहार सूत्र उद्देशक ३, सूत्र ५
४. व्यवहार सूत्र उद्दे शक ३, सूत्र ३
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