Book Title: Anandrushi Abhinandan Granth
Author(s): Vijaymuni Shastri, Devendramuni
Publisher: Maharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
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haiआचार्य आचार्यप्रवास अभिव
अत्र श्राआनन्दाअन्यश्रीआनन्दग्रन्थ
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इतिहास और संस्कृति
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क्षमता होती है। उनके व्यक्तित्व में सर्वातिशा य ओज तथा प्रभाव होता है। परन्तु यह आवश्यक नहीं कि संघगत श्रमणों में वे सबसे अधिक विद्वान एवं अध्येता हों। गणी में इस कोटि की ज्ञानात्मक विशेषता होती है। फलस्वरूप वे आचार्य को भी वाचना दे सकते हैं।
इससे यह भी स्पष्ट है कि आचार्य-पद केवल विद्वत्ता के आधार पर नहीं दिया जाता । विद्या जीवन का एक पक्ष है। उसके अतिरिक्त और भी अनेक पक्ष हैं । जिनके बिना जीवन में समग्रता नहीं आती। आचार्य के व्यक्तित्व में वैसी समग्रता होनी चाहिए, जिससे जीवन के सब अंग परिपूरित लगें। यह सब होने पर भी आचार्य को यदि शास्त्राध्ययन की और अपेक्षा हो तो वे गणी से शास्त्राभ्यास करें। आचार्य जैसे उच्च पद पर अधिष्ठित व्यक्ति एक अन्य साधु से अध्ययन करें, इसमें क्या उनकी गरिमा नहीं मिटती-आचार्य ऐसा विचार नहीं करते । वे गुणग्राही तथा उच्च संस्कारी होते हैं, अत: जो जो उन्हें आवश्यक लगता है, वे उन विषयों को गणी से पढ़ते हैं । यह कितनी स्वस्थ तथा सुखावह परम्परा है कि आचार्य भी विशिष्ट ज्ञानी से ज्ञानार्जन करते नहीं हिचकते । ज्ञान और ज्ञानी के सत्कार का यह अनुकरणीय प्रसंग है। गणधर
गणधर का शाब्दिक अर्थ गण या श्रमण-संघ को धारण करने वाला, गण का अधिपति या स्वामी होता है । आवश्यक वृत्ति में अनुत्तर ज्ञान, दर्शन आदि गुणों के गण-समूह को धारण करने वाले गणधर कहे गये हैं।
आगम-वाङमय में गणधर शब्द मुख्यत: दो अर्थों में प्रयुक्त है।
तीर्थंकर के प्रमुख शिष्य, जो उन (तीर्थकर) द्वारा प्ररूपित तत्व-ज्ञान का द्वादशांगी के रूप में संग्रथन करते हैं, उनके धर्म-संघ के विभिन्न गणों की देख-रेख करते हैं, अपने-अपने गग के श्रमणों को आगम-वाचना देते हैं, गणधर कहे जाते हैं। अनुयोगद्वार सूत्र में भाव-प्रमाण के अन्तर्गत ज्ञान गुण के आगम' नामक प्रमाण-भेद में बताया गया है कि गणधरों के सूत्र आत्मगम्य होते हैं।
तीर्थंकरों के वर्णन-क्रम में उनकी अन्यान्य धर्म-सम्पदाओं के साथ-साथ उनके गणधरों का भी यथाप्रसंग उल्लेख हआ है। तीर्थंकरों के सान्निध्य में गणधरों की जैसी परम्परा वर्णित है, वह सार्वादिक नहीं है। तीर्थंकरों के पश्चात् अथवा दो तीर्थकरों के अन्तर्वर्ती काल में गणधर नहीं होते। अतः उदाहरणार्थ गौतम, सूधर्मा आदि के लिए जो गणधर शब्द प्रयुक्त हुआ है, वह गणधर के शाब्दिक या सामान्य अर्थ में अप्रयोज्य है।
___ गणधर का दूसरा अर्थ, जैसा कि स्थानांग वृत्ति में लिखा गया है, आर्याओं या साध्वियों को
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१. अनुत्तरज्ञानदर्शनादिगुणानां गणं धारयन्तीति गणधराः।
-आवश्यकनियुक्ति गाथा १०६२ वत्ति २. प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान और आगम-इन चार प्रमाणों का वहाँ वर्णन हुआ है। ३. आर्यिकाप्रतिजागरको वा साधु विशेषः समयप्रसिद्धः ।।
-स्थानांग सूत्र ४. ३. ३२३ वृत्ति
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