Book Title: Anandrushi Abhinandan Granth
Author(s): Vijaymuni Shastri, Devendramuni
Publisher: Maharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
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इतिहास और संस्कृति
जीवन से है । स्थविर का सामान्य अर्थ प्रौढ़ या वृद्ध है । जो जन्म से अर्थात् आयु से स्थविर होते हैं, वे जाति-स्थविर कहे जाते हैं । स्थानांग ' वृत्ति में उनके लिए साठ वर्ष की आयु का संकेत किया गया है ।
जो श्रुत-समवाय आदि अग, आगम व शास्त्र के पारगामी होते हैं, वे श्रुत स्थविर' कहे जाते हैं । उनके लिए आयु की इयत्ता का निबन्ध नहीं है । वे छोटी आयु के भी हो सकते हैं ।
पर्याय स्थविर के होते हैं, जिनका दीक्षाकाल लम्बा होता है । इनके लिए बीस वर्ष के दीक्षापर्याय के होने का वृत्तिकार ने उल्लेख किया है
जिनकी आयु परिपक्व होती है, उन्हें जीवन के अनेक प्रकार के अनुभव होते हैं । वे जीवन में बहुत प्रकार के अनुकूल-प्रतिकूल, प्रिय-अप्रिय घटनाक्रम देखे हुए होते हैं अतः वे विपरीत परिस्थिति में भी विचलित नहीं होते वे स्थिर बने रहते हैं । स्थविर शब्द स्थिरता का भी द्योतक है ।
जिनका शास्त्राध्ययन विशाल होता है, वे भी अपने विपुल ज्ञान द्वारा जीवन सत्व के परिज्ञाता होते हैं । शास्त्र ज्ञान द्वारा उनके जीवन में आध्यात्मिक स्थिरता और दृढ़ता होती है ।
जिनका दीक्षा - पर्याय, संयम जीवितव्य लम्बा होता है, उनके जीवन में धार्मिक परिपक्वता, चारित्रिक बल एवं आत्म-ओज सहज ही प्रस्फुटित हो जाता है ।
इस प्रकार के जीवन के धनी श्रमणों की अपनी गरिमा है । वे दृढ़धर्मा होते हैं और संघ के श्रमणों को धर्म में, साधना में, संयम में स्थिर बनाये रखने के लिए सदैव जागरूक तथा प्रयत्नशील रहते हैं ।
प्रवचनसारोद्धार (द्वार २) में कहा गया है
अभिनंदन
"प्रवर्तितव्यापारान् संयमयोगेषु सीदतः साधून् ज्ञानादिषु । ऐहिकामुष्मिक पाय दर्शनतः स्थिरीकरोतीति स्थविर: ।
जो साधु लौकिक एषणावश सांसारिक कार्य-कलापों में प्रवृत्त होने लगते हैं, जो संयम पालन में, ज्ञानानुशीलन में कष्ट का अनुभव करते हैं, ऐहिक और पारलौकिक हानि या दुःख दिखला कर उन्हें जो श्रमण जीवन में स्थिर करते हैं, वे स्थविर कहे जाते हैं । वे स्वयं उज्ज्वल चारित्र्य के धनी होते हैं, अत: उनके प्रेरणा वचन, प्रयत्न प्रायः निष्फल नहीं होते ।
स्थविर की विशेषताओं का वर्णन करते हुए कहा गया है कि स्थविर संविग्न-मोक्ष के अभिलाषी, मार्दवित, अत्यन्त मृदु या कोमल प्रकृति के धनी और धर्मप्रिय होते हैं । ज्ञान, दर्शन एवं चारित्र्य की आराधना में उपादेय अनुष्ठानों को जो श्रमण परिहीन करता है, उनके पालन में अस्थिर बनता है, वे
१. जातिस्थविरा: - षष्टिवर्ष प्रमाणजन्मपर्यायाः ।
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२. श्रतस्थविरा: समवायाङ गधारिणः ।
— स्थानांग सूत्र, स्थान १० सूत्र, ७६२ वृत्ति
३. पर्यायस्थविरा: - विशतिवर्ष प्रमाणप्रव्रज्या पर्यायवन्तः ।
——स्थानांगसूत्र, स्थान १०, सूत्र ७६२ वृत्ति
—स्थानांगसूत्र, स्थान १०, सूत्र ७६२ वृत्ति
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