Book Title: Anandrushi Abhinandan Granth
Author(s): Vijaymuni Shastri, Devendramuni
Publisher: Maharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
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इतिहास और संस्कृति
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के ग्रहण में सक्षम होना बहप्रतिपूर्णेन्द्रियता कहा जाता है। आचार्य में इसका होना अपेक्षित है। सर्वेन्द्रियपरिपूर्णता में जहाँ देह की प्रभावकता फलित होती है, वहाँ उससे व्यक्ति की गम्भीरता भी प्रकट होती है । आचार्य में ऐसा होना चाहिए । वचन-सम्पदा
वचन-सम्पदा चार' प्रकार की कही गई है(१) आदेयवचनता
(२) मधुरवचनता (३) अनिश्रितवचनता
(४) असन्दिग्धवचनता (१) आदेयवचनता-जो वचन ग्रहण करने योग्य होता है, वह आदेय वचन कहा जाता है । ग्रहण करने योग्य वही वचन होता है, जिसमें उपयोगिता तथा श्रद्धेयता हो । आचार्य में आदेयवचनता की विशेषता होनी चाहिए, जिससे श्रोतृगण उनके वचनों की ओर सहजतया आकृष्ट हों, लाभान्वित हों।
(२) मधुरवचनता-हितकरता और उपादेयता के साथ यदि वचन में मधुरता भी हो तो वह सोने में सुगन्ध जैसी बात है। लौकिक जन सहज ही माधुर्य और प्रेयस् की ओर अधिक आकृष्ट रहते हैं। यदि उत्तम बात भी अमधुर या कठोर वचन द्वारा प्रकट की जाय तो सुनने वाला उससे झिझकता है महान् कवि और नीतिविद भारवि ने इसीलिए कहा था-हितं मनोहारिच दुर्लभं वचः अर्थात् ऐसा वचन दुर्लभ है, जो हितकर होने के साथ मनोहर भी हो । आचार्य में ऐसा होना सर्वथा वांछनीय है। इससे उनके आदेय वचनों की ग्राह्यता बहत अधिक बढ़ जाती है।
(३) अनिश्रितवचनता-जो वचन राग, द्वेष या किसी पक्ष विशेष के आग्रह पर टिका होता है, वह निश्रित वचन कहा जाता है । वैसा वचन न वक्ता के अपने हित के लिए है और उससे श्रोतागण को ही कुछ लाभ हो सकता है । आचार्य निश्रितवचन-प्रयोक्ता नहीं होते। वे अनिश्रित वचन बोलते हैं, जिससे सर्वसाधारण का हित हो सकता है, जिसे सब आदरपूर्वक अंगीकार करते हैं।
(४) असन्दिग्धवचनता-स्फुटवचनता, तथ्य का साधक और अतथ्य का बाधक जो न हो, वैसा ज्ञान सन्देह कहलाता है। जो वचन उससे लिप्त है, वह सन्दिग्ध या अस्फुट है । आचार्य सन्दिग्ध अस्फूट या अस्पष्ट वचन का प्रयोग नहीं करते। वैसा करने से उपासकों की श्रद्धा घटती है। उनका किसी भी प्रकार से हित नहीं सधता । क्योंकि वचन के सन्देहयुक्त होने के कारण वे उधर आकृष्ट नहीं होते, फलतः आचार्य चाहे व्यक्त न सही, अव्यक्त रूप में उपेक्षणीय हो जाते हैं । वाचना-सम्पदा
वाचना-सम्पदा के निम्नांकित चार भेद हैं(१) विदित्वो शिता
(२) विदित्वा वाचिता (३) परिनिर्वाप्य वाचिता
(४) अर्थनिर्यापकता
१. दशाश्रुतस्कन्ध सूत्र, अध्ययन ४, सूत्र ५ २. दशाश्रुतस्कन्ध सूत्र, अध्ययन ४, सूत्र ६
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