Book Title: Anandrushi Abhinandan Granth
Author(s): Vijaymuni Shastri, Devendramuni
Publisher: Maharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
View full book text
________________
IPL आन्दन आगामप्रवभिआनन्द आनन्द अन्य129
१२८
इतिहास और संस्कृति
१. आचार-सम्पदा
२. श्रुत-सम्पदा
३. शरीर-सम्पदा ४. वचन-सम्पदा
५. वाचना-सम्पदा
६. मति-सम्पदा ७. प्रयोग-सम्पदा तथा
८. संग्रह-सम्पदा। आचार सम्पदा
जैसा कि पहले उल्लेख किया गया है, आचार-प्रवणता आचार्य का मुख्य गुण है। आचार्य शब्द प्रायः इसी आधार पर निष्पन्न हुआ है। आचार-सम्पदा में इसी आचार-पक्ष का विश्लेषण है, जिसके चार भेद' कहे गये हैं।
(१) संयम-ध्रुवयोग युक्तता.-संयम के साथ आत्मा का ध्रव या अविचल सम्बन्ध संयम-ध्रवयोग कहा जाता है। आचार्य संयम ध्र वयोगी होते हैं। वे अपनी संयम-साधना में सदा अडिग रहते हैं ।
(२) असंप्रगृहीतात्मता-जिसे जाति, पद, तप, वैदुष्य आदि का मद या अहंकार होता है, उसे संप्रगृहीतात्मा कहा जाता है । आचार्य निरहंकार होते हैं। जो गरिमाएँ उन्हें प्राप्त हैं, उनका जरा भी मद उन्हें नहीं होता । फलतः वे क्रोध, मानसिक उत्ताप आदि से मुक्त होते हैं। अतः वे असंप्रगृहीतात्मा कहे जाते हैं । अर्थात् उनकी आत्मा अहंकार, मद एवं क्रोध आदि से जकड़ी नहीं रहती।
(३) अनियतवृत्तिता-जिनका आहार, विहार नियत या प्रतिबद्ध होता है, उनसे विशुद्ध आचारमय जीवन भली-भाँति सध नहीं पाता। अनेक प्रकार की औ शिकता का जुड़ना वहाँ सम्भावित होता है, जो निर्दोष संयम-पालन में बाधक है । अतः आचार्य अनियतवृत्ति होते हैं। शास्त्रीय आचार-परम्परा के अनुरूप उनका आचार अप्रतिबद्ध होता है।
(४) वृद्धशीलता-युवा और चिरदीक्षित न होने पर भी आचार्य में वयोवृद्ध और दीक्षा-मर्यादा में ज्येष्ठ श्रमणों जैसा शील, संयम, नियम, चारित्र आदि पालने की विशेषता होती है । अतः वे वृद्धशील कहे जाते हैं।
वृद्धशील का आशय यों भी हो सकता है-वृद्ध या रोग आदि के कारण जो वृद्ध की ज्यों अशक्त हो गये हैं, उन श्रमणों की सेवा या सुव्यबस्था में आचार्य सदा जागरूक रहते हैं । श्रुत-सम्पदा
श्रुता सम्पदा का भी चार प्रकार से विवेचन किया गया है(१) बहुश्रुतता
(३) परिचितश्रुतता (२) विचित्र-श्रुतता
(४) घोषविशुद्धिकारकता बहुश्रुतता-आचार्य बहुश्रुत होते हैं । वे अपने समय में उपलब्ध आगम सम्यक्तया जानते हैं। अपने समय-सिद्धान्त या शास्त्रों के अतिरिक्त परसमय-अन्य शास्त्रों के भी वेत्ता होते हैं । यों उनका श्रतशास्त्रीय ज्ञान बहत विस्तीर्ण और व्यापक होता है ।
१. दशाश्रुतस्कन्ध सूत्र, अध्ययन ४, सूत्र २ २. दशाश्रुतस्कन्ध सूत्र, अध्ययन ४, सूत्र ३
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org