Book Title: Anandrushi Abhinandan Granth
Author(s): Vijaymuni Shastri, Devendramuni
Publisher: Maharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
View full book text
________________
आचार्य प्रवल अभिनंदन आनन्द
आर्यप्रति आमन
१२६ इतिहास और संस्कृति
लिच्छवि गणतन्त्र का प्रभाव
भगवान बुद्ध के भिक्षु संघ की व्यवस्था लिच्छवि गणतन्त्र से थोड़े से परिवर्तन के साथ बहुत अशों में मिलती-जुलती थी । सम्भव लिच्छवि शासन-परम्परा से बुद्ध ने इसे ग्रहण किया हो ।
स्वयं लिच्छवि राजकुमार होने से भगवान महावीर एक वंशीयता के नाते लिच्छवियों के अधिक निकट थे, पर पालिपिटकों से प्रकट है, लिच्छवियों का बुद्ध की ओर कहीं अधिक झुकाव था ।
डा० भगवतशरण उपाध्याय ने भारत के प्राचीन गणराज्यों का वर्णन करते हुए लिच्छवियों के सम्बन्ध में लिखा है
" लिच्छवि अपने संघ की बैठकों के लिए प्रसिद्ध थे । उनकी बैठकों में शासन के कार्य अत्यन्त सुचारु रूप और एकता से सम्पन्न होते थे । गौतम बुद्ध ने उनको बहुत सराहा था ।" "
लिच्छवियों के बुद्ध की ओर विशेष झुकाव का कारण बुद्ध के भिक्षु संघ की प्रजातान्त्रिक व्यवस्था का होना प्रतीत होता है ।
लिच्छवि अपनी जनतान्त्रिक परम्परा के कारण शासक-शासित का भेद जहाँ न हो, उधर विशेष आकृष्ट रहे, यह सहज था । अधिकारी और अधिकृत बड़े और छोटे का भेद सह सकने के लिच्छवि अभ्यस्त नहीं थे । बुद्ध की संघ व्यवस्था यदि एकतान्त्रिकता या व्यक्तिनिष्ठ अधिकारसत्ता की ओर झुकी होती तो यह कम सम्भव था, वे बुद्ध की ओर आकृष्ट रहते ।
लिच्छवियों की इस मनोवृत्ति का परिचय वज्जिपुत्तक- भिक्खु, जो लिच्छवि वंश के थे, के उस कदम से मिलता है, जो उन्होंने द्वितीय बौद्ध संगीति के अवसर पर उठाया था । ज्यों ही उन्हें लगा, भिक्षु संघ में बड़े छोटे का भेद उत्पन्न हो रहा है, उनके स्वतंत्र अस्तित्व पर इतर आधिपत्य छा जाना चाहता है, वज्जिपुत्तक भिक्षु संघ से पृथक् हो गये और उन्होंने स्वतन्त्र रूप से वज्जिपुत्तक संघ का प्रवर्तन किया ।
महावीर भी यद्यपि प्रजातान्त्रिक परम्परा से आए थे पर उन्हें नहीं लगा, श्रमण संघ प्रजातान्त्रिक पद्धति के अनुसार चिरकाल तक अपना यथावत् अस्तित्व लिये निर्द्वन्द्व रूप में चल सकेगा । इस व्यवस्था में उन्हें धर्म-संघ का चिर जीवन नहीं दीखता था। भविष्य ने कुछ बताया भी वैसा ही । जैन श्रमण संघ आज सहस्राव्दियां बीतने को आई, बहुत अंशों में अक्षुण्ण रहा, बौद्ध भिक्षु संघ बुद्ध के थोड़े ही समय बाद विश् खल होने लगा । भगवान बुद्ध से सम्राट अशोक तक आते-आते वह अनेक खण्डों में बंट गया । विचार- प्रसार की दृष्टि से केवल भारत ही नहीं, समुद्र पार के देशों तक पहुँचकर उसने असाधारण सफलता प्राप्त की पर उसकी मौलिकता स्थिर नहीं रही ।
तब से अब तक का इतिहास साक्षी है, जहाँ एकतंत्री शासक खरा, ईमानदार और सेवाशील रहा, वहाँ राष्ट्र, समाज और धर्म ने चतुर्दिक उन्नति की । अति प्रजातान्त्रिकता में परिवर्तन पर परिवर्तन आये, शासन जम नहीं पाया । विषाक्त प्रतिस्पर्धा भी वहां शान्ति का सांस नहीं लेने देती । धर्मक्षेत्र में यह फब सके, क्या यह सम्भव है ।
१. प्राचीन भारत का इतिहास, पृष्ठ ६८
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org