Book Title: Anandrushi Abhinandan Granth
Author(s): Vijaymuni Shastri, Devendramuni
Publisher: Maharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
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इतिहास और संस्कृति
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पर इसका आशय स्पष्ट नहीं होता, क्योंकि कुल स्वयं अपने आपमें एक सीमित समुदाय था, जो गण का भाग था। ऐसी स्थिति में गच्छों का समूह कुल हो, यह कम सम्भव प्रतीत होता है । यदि ऐसा हो तो यह कल रूप सीमित इकाई का और अधिक सीमित भाग होगा। गच्छ का प्रयोग जिस अर्थ में हम पाते हैं, उससे यह तात्पर्य सिद्ध नहीं होता। वहां वह गण जैसे एक समग्र समुदाय का बोधक है।
जैन संघ के संगठन के समय-समय पर परिवर्तित होते रूपों का यहाँ दिग्दर्शन मात्र कराया गया है। जैन संघ में पद
श्रमण-जीवन का सम्यक्तया निर्वाह, धर्म की प्रभावना, ज्ञान की आराधना, साधना का विकास तथा संगठन व अनुशासन की दृढ़ता आदि के निमित्त जैन संध में निम्नांकित पदों के होने का उल्लेख प्राप्त होता है। १. आचार्य २. उपाध्याय ३. प्रवर्तक
४. स्थविर ५. गणी ६. गणधर
७. गणावच्छेदक। इनमें आचार्य का स्थान सर्वोपरि है। संघ का सर्वतोमुखी विकास, संरक्षण, संवर्धन, अनुशासन आदि का सामूहिक उत्तरदायित्व आचार्य पर होता है।
__ जैन वाङमय के अनुशीलन से प्रतीत होता है कि जैन संघ में आचार्य पद का आधार मनोनयन रहा, निर्वाचन नहीं। भगवान महावीर का अपनी प्राक्तन परम्परा के अनुरूप इसी ओर झुकाव था।
भगवान महावीर के समसामयिक धर्म-प्रवर्तकों या धर्म-नायकों में महात्मा बुद्ध का संघ उल्लेखनीय था, जिसका बौद्ध साहित्य में विस्तृत विवेचन है। संख्या की दृष्टि से मंखलिपुत्र गौशालक का संघ भी बहुत बड़ा था पर उसके नियमन, अनुशासन, संगठन आदि के सम्बन्ध में कोई प्रामाणिक ऐतिहासिक सामग्री प्राप्त नहीं है।
भगवान महावीर और बुद्ध की संघीय व्यवस्था के सन्दर्भ में तुलनात्मक रूप में विचार किया जाए, यह उपस्थित प्रसंग के स्पष्टीकरण की दृष्टि से उपयोगी होगा। भगवान बुद्ध का भिक्षु-संघ
भगवान बुद्ध एक विशाल भिक्षु-संघ के अधिनायक थे । 'ललित विस्तर' में उल्लेख है, श्रावस्ती में भगवान बुद्ध के साथ १२ सहस्र भिक्षु थे। सामञ्जफलसुत्त में भगवान बुद्ध के साथ राजगृह में १२५० भिक्षुओं का होना लिखा है। तात्पर्य यह है, भगवान बुद्ध के जीवन-काल में ही उनका भिक्षुसंघ बहुत वृद्धिगत हो चुका था।
भगवान बुद्ध प्रजातान्त्रिक संघ-व्यवस्था में विश्वास करते थे। यही कारण है, उन्होंने न कोई अपना उत्तराधिकारी निश्चित किया और न धर्म-शासन के लिए कोई पद-व्यवस्था ही की। उन्होंने अधिशासन, संचालन एवं अधिकार-सत्ता का अधिष्ठान विनय एवं धम्म को माना।
१. (क) स्थानांग सूत्र ४, ३, ३२३ वृत्ति
(ख) बृहत्कल्प सूत्र ४ था उद्देशक
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