Book Title: Anandrushi Abhinandan Granth
Author(s): Vijaymuni Shastri, Devendramuni
Publisher: Maharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
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जैन श्रमण संघ : समीक्षात्मक परिशीलन
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भगवान महावीर की संघीय शासन-व्यवस्था से भगवान बुद्ध की व्यवस्था में अन्तर था। महावीर वैयक्तिक अधिकार में विश्वास करते थे। अधिकारी, योग्य व्यक्ति के संचालकत्व एवं अधिनायकत्व में उन्हें संघ का चिरहित दीखता था । उन द्वारा की गई पद-व्यवस्था से यह अनुमेय है । बुद्ध ने अपने संघ में वैयक्तिक नेतृत्व, अधिकार या वैशिष्ट्य को स्थान नहीं दिया।
एक बार गोपक मोग्गलान ने आनन्द से पूछा-"भद्र आनन्द ! क्या कोई ऐसा भिक्षु है, जिसे तथागत ने यह कहते हुए कि मेरे निर्वाण के अनन्तर यह तुम लोगों का सहारा होगा, इसका तुम अवलम्बन लोगे, मनोनीत किया?
__ आनन्द का उत्तर था-"कोई ऐसा श्रमण या ब्राह्मण (भिक्षु) नहीं है, जिसे पूर्णत्व प्राप्त, स्वयं बोधित भगवान ने यह कहते हुए कि मेरे निर्वाण के अनन्तर यह तुम लोगों का सहारा होगा, जिसका अवलम्बन हम लोग ले सकें, मनोनीत किया।"
गोपक मोग्गलान ने पूनः पूछा-"पर क्या आनन्द ! ऐसा कोई भिक्ष है, जिसे संघ ने स्वीकार किया हो और अनेक वृद्ध भिक्षुओं द्वारा जिसके सम्बन्ध में यह कहते हुए व्यक्त किया गया हो कि तथागत के निर्वाण के अनन्तर यह हमारा सहारा होगा, जिसका तुम अवलम्बन ले सकते हो।"
आनन्द ने कहा-"ऐसा कोई भी श्रमण ब्राह्मण नहीं है, जिसे संघ ने माना हो......"और जिसका अब हम अवलम्बन ले सकते हैं।"
इस वार्तालाप से स्पष्ट है, भगवान बुद्ध ने अपने पश्चात् किसी को भी संघ-संचालन का भार वहन करने के लिए मनोनीत नहीं किया और न संघ ने तथा स्थविर भिक्षओं ने ही ऐसा किया। धम्मसेनापति, धम्मधर, विनयधर
बौद्ध वाङमय में "धम्म सेनापति", "धम्मधर" और "विनय-धर" ये पदसूचक शब्द प्राप्त होते हैं । वस्तुतः ये भिक्षु-संघ के शासन से सम्बद्ध नहीं हैं। ये धर्म और विनय सम्बन्धी वैयक्तिक योग्यता पर आधृत हैं।।
धर्म के ज्ञाता को धम्मधर कहा जाता था। भगवान बुद्ध के निकटतम अन्तेवासी आनन्द के लिये यह विशेषण प्रयुक्त मिलता है । आनन्द को भगवान बुद्ध के सान्निध्य में सबसे अधिक रहने का अवसर मिला था। (उन्होंने भगवान बुद्ध द्वारा निरूपित धर्म-सिद्धान्तों का कथन भी किया था)।
"धम्म-सेनापति" धर्म-तत्त्व की अत्यधिक अभिज्ञता पर आधृत है । सारिपुत्र एवं मोग्गलान इस कोटि में लिये गये हैं। भगवान बुद्ध के जीवन काल में भी उन्होंने यदा-कदा धर्मोपदेश किया, जिसे भगवान बुद्ध ने समर्थन दिया था।
विनयधर उसे कहा जाता था, जो विनय भिक्षु-आचार के सिद्धान्तों का विशेष ज्ञाता होता था। उपालि का विनयधर के रूप में उल्लेख हुआ है।
१. द मिडिल लेंथ सेइंग वाल्यूम ३, पृ० ५६-६०
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-RAMM
orerwara
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