Book Title: Anandrushi Abhinandan Granth
Author(s): Vijaymuni Shastri, Devendramuni
Publisher: Maharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
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जैन श्रमण संघ : समीक्षात्मक परिशीलन
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गया है। वाद सम्बन्धी विशेष पटता या कुशलता का नाम प्रयोग-सम्पदा है। उसके निम्नलिखित चार' भेद हैं
(१) अपने आपको जानकर वाद का प्रयोग करना । (२) परिषद् को जानकर वाद का प्रयोग करना । (३) क्षेत्र को जानकर वाद का प्रयोग करना । (४) वस्तु को जानकर वाद का प्रयोग करना।
(१) आत्म-ज्ञानपूर्वक वाद का प्रयोग-वादार्थ उद्यत व्यक्ति के लिए यह आवश्यक है कि पहले वह अपनी शक्ति, क्षमता, प्रमाण, नय आदि के सम्बन्ध में अपनी योग्यता को आँके । यह भी देखे कि प्रतिवादी की तुलना में उसकी कैसी स्थिति है । वह तत्पश्चात् वाद में प्रवृत्त हो । ऐसा न होने पर प्रतिकुल परिणाम आने की आशंका हो सकती है । अतः आचार्य में इस प्रकार की विशेषता का होना आवश्यक है। यों सोच-विचार कर, अपनी क्षमता को आँक कर बुद्धिमत्तापूर्वक वाद में प्रवृत्त होना पहले प्रकार की प्रयोग-सम्पदा है।
(२) परिषद-ज्ञान पूर्वक वाद-प्रयोग-जिस परिषद् के बीच वाद होने को है, कुशल वादी को चाहिए कि वह उस परिषद के सम्बन्ध में पहले से ही जानकारी प्राप्त करे कि वह (परिषद) गम्भीर तत्वों को समझती है या नहीं । यह भी जाने कि परिषद् की रुचि वादी के अपने धार्मिक सिद्धान्तों में है या प्रतिवादी के सिद्धान्तों में । केवल तर्क और युक्ति-बल द्वारा ही प्रतिवादी पर सम्पूर्ण सफलता नहीं पाई जा सकती। जिन लोगों के बीच वाद प्रवृत्त होता है, उनका मानसिक झुकाव भी उसमें काम करता है । अतएव सफलता या प्रतिवादी पर विजय चाहने वाले वादी के लिए यह आवश्यक है कि परिषद की अनुकुलता और प्रतिकुलता को दृष्टि में रखे । इस ओर सोचे-विचारे बिना वाद में प्रवृत्त न हो। आचार्य में इस प्रकार की विशेष समझ के साथ वाद में प्रवृत्त होने की सहज विशेषता होती है।
क्षेत्र-जान पूर्वक वाद-प्रयोग--जिस क्षेत्र में वाद होने को है, वह कैसा है, वहाँ के लोग दर्लभ बोधि हैं या सुलभ बोधि, वहाँ का शासक विज्ञ है या अज्ञ, अनुकूल है या प्रतिकूल इत्यादि बातों को भी ध्यान में रखना वादी के लिए आवश्यक है। यदि लोग सुलभ बोधि, शासक विज्ञ तथा अनुकूल हो तो विद्वान वादी को सफलता और गौरव मिलता है। क्षेत्र की स्थिति इसके प्रतिकूल हो तो वादी अत्यन्त योग्य होते हुए भी सफल बन सके, यह कठिन है । आचार्य में क्षेत्र को परखने की अपनी विशेषता होती है।
वस्तु-ज्ञान पूर्वक वाद का प्रयोग--वस्तु का अर्थ वाद का विषय है । जिस विषय पर वाद या वैचारिक ऊहापोह किया जाना है, वह वादी को ध्यान में रहना आवश्यक है । उस विषय के विभिन्न पक्ष, उस सम्बन्ध में विविध धारणाएँ, उनका समाधान इत्यादि दृष्टि में रखते हुए वाद में प्रवृत्त होना हितावह होता है। आचार्य में यह विशेषता भी होनी चाहिए।
संक्षेप में, सार यह है कि आचार्य का संघ में सबसे अधिक महत्वपूर्ण स्थान होता है। उनकी विजय
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१ दशाश्रुतस्कन्ध सूत्र, अध्ययन ४, सूत्र ११
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