Book Title: Anandrushi Abhinandan Granth
Author(s): Vijaymuni Shastri, Devendramuni
Publisher: Maharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
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जैन श्रमण संघ : समीक्षात्मक परिशीलन
१२३
रूप में यह क्रम चला, जहाँ मुख्य इकाई गण था और उसकी पूरक इकाइयाँ कुल थे। इनमें पारस्परिक समन्वय एवं सामंजस्य था, जिससे संघीय शक्ति विघटित न होकर संगठित बनी रही।
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गच्छ
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जैन संघ की उत्तरकालीन संघ-व्यवस्था या श्रमण-संगठन के सन्दर्भ में हम देखते हैं कि आगे चलकर गण और कुल का स्थान गच्छ ले लेते हैं । यद्यपि गच्छ शब्द नये रूप में आविर्भूत नहीं हुआ था, पुरातन परम्परा में यह प्राप्य है, परन्तु जिस अर्थ में पश्चाद्वर्ती काल में इसका प्रयोग होने लगा, वैसा प्रयोग पहले नहीं होता था । सार्वजनीन रूप में व्यवहृत गण शब्द के साथ-साथ गच्छ शब्द का भी कहींकहीं प्रयोग प्राप्त होता है । पर इसका व्यापक प्रचलन नहीं था।
जीवानुशासन में एक आचार्य के परिवार को गच्छ कहा गया है । औपपातिक में भी ऐसा ही उल्लेख है। पञ्चाशक में एक आचार्य के अन्तेवासी साध-समुदाय को गच्छ के नाम से अभिहित किया गया है । जीवानुशासन और पञ्चाशक में की गई परिभाषाओं में कोई विशेष अन्तर प्रतीत नहीं होता । बृहत्कल्पभाषा की टीका में गच्छ के विषय में विशेष बातें कही गई हैं, जो इस प्रकार हैं
"तिगमाइया गच्छा, सहस्स बत्तीसई उसभेण । त्रिकादयस्त्रिचतुः प्रभृतिपुरुषपरिमाणा गच्छा भवेयः । किमुक्तं भवति? एकस्मिन् गच्छे जघन्यतस्त्रयो जना भवन्ति, गच्छस्य साधुसमुदायरूपत्वात्तस्य च त्रयाणामधस्तादभावादिति । तत ऊर्ध्व ये चतुः पञ्चप्रभृति पुरुषसंख्याका गच्छास्ते मध्यमपरिमाणतः प्रतिपत्तव्यास्तावद्यावदुत्कृष्टं परिमाणं न प्राप्नोति । कि पुनस्तद् ? इति चेदत आह (सहस्स बत्तीसई उसभेणत्ति) द्वात्रिंशत्सहस्राण्येकस्मिन् गच्छे उत्कृष्टं साधूनां परिमाणं, यथा श्रीऋषभस्वामिप्रथमगणधरस्य भगवत ऋषभसेनस्येति ।"१
इस विवेचन के अनुसार गच्छ में कम से कम तीन साधुओं का होना आवश्यक है। उससे अधिक चार-पाँच आदि भी हो सकते हैं । इस प्रकार के गच्छ मध्यम परिमाण के कहे जाते हैं। गच्छान्तर्वर्ती साधओं की अधिकतम संख्या का परिमाण बत्तीस हजार है।
टीकाकार ने इस प्रसंग में प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभ के प्रथम गणधर ऋषभसेन की चर्चा की है और उनके गच्छ को उत्कृष्टतम संख्या के उदाहरण के रूप में उपस्थित किया है। गहराई से सोचने पर यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि यहाँ प्रयुक्त 'गच्छ' शब्द तीर्थंकर के एक गणधर द्वारा अनुशासित गण के अर्थ में है।
आगे जाकर गच्छ बहत प्रचलित हो गया और भिन्न-भिन्न कारणों से भिन्न-भिन्न नामों के गच्छों का प्रचलन हुआ।
टीकाकारों ने गच्छ, कुल आदि के विश्लेषण के प्रसंग में गच्छों के समूह को कुल बतलाया है।
१. वृहत्कल्पभाष्य प्रथम उद्देशक वृत्ति (मलयगिरि) २. बहूनां गच्छानामेकजातीयानां समूहे ।
-धर्मसंग्रह सटीक अधिकरण ३
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