Book Title: Anandrushi Abhinandan Granth
Author(s): Vijaymuni Shastri, Devendramuni
Publisher: Maharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
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आचार्यप्रवर
आचार्यप्रकार श्रीआनन्ग्र न्थश्राआनन्दाग्रन्थ
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प्राकृत भाषा और साहित्य
कासु समाहि करउं को अंचउं
--(१२) किसकी समाधि करू किसे पूजू इन प्रयोगों में भी पदक्रम में अन्तर करने से अर्थ-भेद नहीं होता । मुनि कनकामर के प्रयोग देखें। कनकामर का समय ११वीं सदी का मध्य माना गया है।
सा सोहइ सिय जल कुडिलवन्ति -(१३)
-S - -Vसंरचना S. V. Am.
आचार्य हेमचन्द्र का समय बारहवीं सदी है। हेमचन्द्र की रचनाओं में संयोगात्मक रूप ही प्रयुक्त हुए हैं
विणुमणसुद्धिए लहइ न सिवु जणु -(१४)
उपर्युक्त वाक्य के सभी पद संश्लिष्ट हैं। इसे यों भी लिखा जा सकता है अथवा अन्य क्रम से भी
लहइ न सिवु जणु विणुमणसुद्धिए
अथवा-जणु सिवु लहइ न विणुमणसुद्धिए इससे अपभ्रंश की संयोगात्मक स्थिति ज्ञात होती है। अयोगात्मक संरचनाएँ बहुत कम हैं। निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि स्वतन्त्र कारक चिन्हों के विकसित होने पर भी अपभ्रंश की वाक्यसंरचना में संयोगात्मक स्थितिजन्य प्रवृत्ति की ही प्रधानता रही। कर्तृवाच्य संरचनाओं में-v.s अथवा S. V. ही अधिकतर प्रयुक्त हुईं। कर्मवाच्य संरचनाएँ
कर्मवाच्य संरचनाओं में कर्ता तृतीया में होता है और क्रिया के वचन, लिंग और पुरुष का निर्धारण कर्म के अनुसार होता है, अर्थात् कर्मवाच्य की क्रिया को
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सूत्र से व्यक्त किया जा सकता है। इस सूत्र में V क्रिया पद है, 0-कर्म है तथा n=number, p=person तथा g=gender के सूचक हैं । अर्थात् क्रिया, कर्म के वचन, पुरुष तथा लिंग से निर्धारित होगी। कर्ता करणकारक में होगा, इसका लिंग, वचन और पुरुष स्वतन्त्र होगा। एक उदाहरण देखें
णियइँ सिरई विज्जाहरेंहिं
-~--V...- -0- - -- 'विज्जाहरेंहिं' बहु० व० तृतीया का रूप है, इसमें 'विज्जाहर' (विद्याधर) के अन्त्य 'अ' को विकल्प से 'ए' होकर तृतीया ब० व० की विभक्ति हि लगने से रूप बना विज्जाहरोहिं । णियई' क्रिया पद, कर्म सिरई के अनुरूप है । तब वाक्यसंख्या १५ की संरचना होगी
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