Book Title: Anandrushi Abhinandan Granth
Author(s): Vijaymuni Shastri, Devendramuni
Publisher: Maharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
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अभिनंदन इमरान व आमदन
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इतिहास और संस्कृति
शासन में उनके अपने- अपने गण थे । अष्टम व नवम गणधर का सम्मिलित रूप में एक गण था । इसी प्रकार दशवें तथा ग्यारहवें गणधर का भी एक ही गण था। कहा जाता है कि श्रमण-संख्या कम होने के कारण इन दो-दो गणधरों के गणों को मिलाकर एक-एक किया गया था ।
अध्यापन, क्रियानुष्ठान की सुविधा व सुव्यवस्था रहे, इस हेतु गण पृथक्-पृथक् थे । वस्तुतः उनमें कोई मौलिक भेद नहीं था । वाचना का भी केवल शाब्दिक भेद था, अर्थ की दृष्टि से वे अभिन्न थीं । क्योंकि भगवान महावीर ने अर्थ रूप में जो तत्व-निरूपण किया, भिन्न-भिन्न गणधरों ने अपने-अपने शब्दों में उसका संकलन या संग्रथन किया, जिसे वे अपने गण के श्रमण समुदाय को सिखाते थे । अतएव गणविशेष की व्यवस्था करने वाले तथा उसे वाचना देने वाले गणधर का निर्वाण हो जाने पर उस गण का पृथक् अस्तित्व नहीं रहता । निर्वाणोन्मुख गणधर अपने निर्वाण से पूर्व दीर्घजीवी गणधर सुधर्मा के गण में उसका विलय कर देते ।
एक अनुपम विशेषता
भगवान महावीर के संघ की यह परम्परा थी कि सभी गणों के श्रमण, जो भिन्न-भिन्न गणधरों के निर्देशन और अनुशासन में थे, प्रमुख पट्टधर के शिष्य माने जाते थे । इस परम्परा के अनुसार सभी श्रमण भगवान महावीर के निर्वाण के अनन्तर सहजतया सुधर्मा के शिष्य माने जाने लगे । यह परम्परा आगे भी चलती रही । भिन्न-भिन्न साधु मुमुक्षुजनों को आवश्यक होने पर दीक्षित तो कर लेते थे, पर परम्परा या व्यवस्था के अनुसार उसे अपने शिष्य रूप में नहीं लेते, दीक्षित व्यक्ति मुख्य पट्टधर का ही शिष्य माना
जाता था ।
यह बड़ी स्वस्थ परम्परा थी । जब तक रही, संघ बहुत सबल एवं सुव्यवस्थित रहा । वस्तुतः धर्म-संघ का मुख्य आधार श्रमण श्रमणी -समुदाय ही है । उनके सम्बन्ध में जितनी अधिक जागरूकता और सावधानी बरती जाती है, संघ उतना ही स्थिर और दृढ़ बनता है ।
भगवान बुद्ध धर्म देशना
भगवान बुद्ध इस ओर कुछ भिन्न दृष्टिकोण लिये हुए थे । जब वे बुद्ध हुए तो पहले पहल किसी को धर्म देशना दीक्षा देने को तैयार न थे । महावग्ग में उनके उद्गार हैं
"कुच्छ साधना से — कष्ट से जो धर्म मैंने अधिगत किया है, उसे रागद्वेष में फँसे हुए लोग नहीं समझ पायेंगे । यह धर्मतत्व प्रतिस्रोत-गामी ( लोकप्रवाह के विपरीत चलने वाला), निपुण, गम्भीर, दुश्य और सूक्ष्म है । अंधकारावृत्त एवं राग-रक्त मनुष्य इसे नहीं देख पायेंगे । १
"देवलोक से समागत ब्रह्म सम्पति नामक देव ने भगवान से पुनः विशेष अनुनय-विनय कियावे देवताओं और मनुष्यों के कल्याणार्थ धर्मदेशना दें ।
तब भगवान बुद्ध ने पहले पहल पाँच मनुष्यों को अपने धर्म में दीक्षित किया । महावग्ग में उन्हें पंचवग्गिय कहा गया है ।""
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१. महावग्ग १.५. ७ २. महावग्ग १.५.
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