Book Title: Anandrushi Abhinandan Granth
Author(s): Vijaymuni Shastri, Devendramuni
Publisher: Maharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
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इतिहास और संस्कृति
ये सब मात्र कल्पनाएँ और सम्भावनाएँ हैं। इस पहल पर और गहराई से चिन्तन और अन्वेषण करना अपेक्षित है। तिलोयपण्णत्ति में गण का वर्णन तिलोयपण्णत्ति में भी गण का उल्लेख हआ है। वहाँ कहा गया है
"पुव्वधर सिक्खकोही केवलिवेकूव्वी विउलमदिवादी।
पत्तेकं सत्तगणा, सव्वाणं तित्थकत्ताणं ॥" १०६८ सभी तीर्थंकरों में से प्रत्येक के पूर्वधर, शिक्षक, अवधिज्ञानी, केवली, वैक्रियलब्धिधर, विपुलमति और वादी श्रमणों के सात गण होते हैं। भगवान महावीर के सात गणों का वर्णन करते तिलोयपण्णत्तिकार लिखते हैं -
तिसयाई पुग्वधरा, णवणउदिसयाई होति सिक्खगणा। तेरससयाणि ओही सत्तसयाई पि केवलिणो ॥११६०॥ इगिसयरहिवसहस्सं, वेकुव्वी पणसयाणि विउलमदी।
चत्तारिसया वादी, गणसंखा वड्ढमाणजिणे ॥११६१॥ भगवान महावीर के सात गणों में उन उन विशेषताओं वाले श्रमणों की संख्याएं इस प्रकार थींपूर्वधर तीनसौ, शिक्षक नौ हजार नौ सौ, अवधिज्ञानी एक हजार तीन सौ, केवली सात सौ, वैक्रिय लब्धिधर नौ सौ, विपुलमति पाँच सौ तथा वादी चार सौ। . प्रस्तुत प्रकरण पर विचार करने पर यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि यद्यपि 'गण' शब्द का प्रयोग यहाँ अवश्य हआ है पर वह संगठनात्मक इकाई का द्योतक नहीं है। इसका केवल इतना-सा आशय है कि भगवान महावीर के शासन में अमुक-अमुक वैशिष्ट्य सम्पन्न श्रमणों के अमुक-अमुक संख्या के समुदाय या समूह थे अर्थात उनके संघ में इन-इन विशेषताओं के इतने श्रमण थे।
केवलियों, पूर्वधरों और अवधिज्ञानियों के तथा इसी प्रकार अन्य विशिष्ट गुणधारी श्रमणों के अलग-अलग गण होते, यह कैसे सम्भव था। यदि ऐसा होता तो सभी केवली एक ही गण में होते । वहाँ किसी तरह की तरतमता नहीं रहती । न शिक्षक-शैक्ष भाव रहता और न व्यवस्थात्मक संगति ही । यहाँ गण शब्द मात्र एक सामूहिक संख्या व्यक्त करने के लिए व्यवहृत हुआ है । श्वेताम्बर वाङ्मय में भी इस प्रकार के वैशिष्ट्य-सम्पन्न श्रमणों का उल्लेख हुआ है ।'
केवली, अवधिज्ञानी, पूर्वधर और वादी-इनकी दोनों परम्पराओं में एक समान संख्या मानी गई है। वैक्रियलब्धिधर की संख्या में दो सौ का अन्तर है । तिलोयपण्णत्ति में वे दो सौ अधिक माने गये हैं।
उक्त विवेचन से बहत साफ है कि तिलोयपण्णत्तिकार ने गण का प्रयोग सामान्यत: प्रचलित अर्थसमूह या समुदाय में किया है।
१. केवली सात सौ, मनःपर्यवज्ञानी पाँच सौ, अवधिज्ञानी तेरह सौ, चौदह पूर्वधारी तीन सौ, वादी चार सौ, वैक्रियलब्धिधारी सात सौ, अनुत्तरोपपातिक मुनि आठ सौ।
—जैनधर्म का मौलिक इतिहास, प्रथम खण्ड, पृष्ठ ४७३
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