Book Title: Anandrushi Abhinandan Granth
Author(s): Vijaymuni Shastri, Devendramuni
Publisher: Maharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
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आचार्यप्रवर आभाचार्यप्रवभिः आाआनन्दका
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११४ इतिहास और संस्कृति
जैन साधु और साध्वियाँ वर्षाऋतु के चार महिनों में पदयात्रा नहीं करते। वे एक ही स्थान पर ठहरते हैं जिसे चातुर्मास करना कहते हैं। इस काल में जैन लोग तप, त्याग, प्रत्याख्यान, संघ-यात्रा, तीर्थयात्रा, मुनि-दर्शन, उपवास, आयम्बिल, मासखमण, संवत्सरी, क्षमापर्व जैसे विविध उपासना-प्रकारों द्वारा आध्यात्मिक जागति के विविध कार्यक्रम बनाते हैं। इससे व्यक्तिगत जीवन निर्मल स्वस्थ और उदार बनता है, तथा सामाजिक जीवन में बंधुत्व, मैत्री, वात्सल्य जैसे भावों की वृद्धि होती है ।
अधिकांश जैनधर्मावलम्बी कृषि, वाणिज्य और उद्योग पर निर्भर हैं। देश के विभिन्न क्षेत्रों में ये फैले हुए हैं । बंगाल, बिहार, तमिलनाडु, महाराष्ट्र, आदि प्रदेशों में इनके बड़े-बड़े उद्योग-प्रतिष्ठान हैं। अपने आर्थिक संगठनों द्वारा इन्होंने राष्ट्रीय उत्पादन तो बढ़ाया ही है, देश के लिए विदेशी मुद्रा अर्जन करने में भी इनकी विशेष भूमिका रही है। जैन संस्कारों के कारण मर्यादा से अधिक आय का उपयोग वे सार्वजनिक स्तर के कल्याण कार्यों में करते रहे हैं।
राजनीतिक चेतना के विकास में भी जैनियों का सक्रिय योग रहा है। भामाशाह की परम्परा को निभाते हुए कइयों ने राष्ट्रीय रक्षाकोष में पुष्कल राशि समर्पित की है। स्वतन्त्रता से पूर्व देशी रियासतों में कई जैन श्रावक राज्यों के दीवान और सेनापति जैसे महत्वपूर्ण पदों पर कार्य करते रहे हैं। स्वतन्त्रता संग्राम में क्षेत्रीय आन्दोलनों का नेतृत्व भी उन्होंने संभाला है। अहिंसा, सत्याग्रह, भूमिदान, सम्पत्तिदान, भूमि सीमाबन्दी, आयकर प्रणाली, धर्म निरपेक्षता, जैसे सिद्धान्तों और कार्यक्रमों में जैनदर्शन की भावधारा न्यूनाधिक रूप से प्रेरक कारण रही है।
प्राचीन साहित्य के संरक्षक के रूप में जैन धर्म की विशेष भूमिका रही है। जैन साधुओं ने न केवल मौलिक साहित्य की सर्जना की वरन् जीर्णशीर्ण दुर्लभ ग्रन्थों का प्रतिलेखन कर उनकी रक्षा की ओर स्थान-स्थान पर ग्रन्थ भंडारों की स्थापना कर, इस अमूल्य निधि को सुरक्षित रखा। राजस्थान और गुजरात के ज्ञान भंडार इस दृष्टि से राष्ट्र की अमूल्य निधि हैं। महत्वपूर्ण ग्रन्थों के प्रकाशन का कार्य भी जैन शोध संस्थानों ने अब अपने हाथ में लिया है। जैन पत्र-पत्रिकाओं द्वारा भी वैयक्तिक, पारिवारिक, सामाजिक, और राष्ट्रीय जीवन को स्वस्थ और सदाचार युक्त बनाने की दिशा में बड़ी प्रेरणा और शक्ति मिलती रही है। कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि जैन धर्म की दृष्टि राष्ट्र के सर्वांगीण विकास पर रही है। उसने मानव-जीवन की सफलता को ही मुख्य नहीं माना, उसका बल रहा उसकी सार्थकता और आत्म-शुद्धि पर।
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