Book Title: Anandrushi Abhinandan Granth
Author(s): Vijaymuni Shastri, Devendramuni
Publisher: Maharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
View full book text
________________
D विद्यामहोदधि डॉ. छगनलाल शास्त्री, काव्यतीर्थ एम० ए० (संस्कृत, हिन्दी, प्राकृत व जैनोलोजी) स्वर्णपदक-समादत, पी-एच०डी०
या
जैन श्रमणसंघ : विभाजन : पद : योग्यता : दायित्व : कर्तव्य
समीक्षात्मक परिशीलन
भ० महावीर का श्रमण-संघ
भगवान महावीर का श्रमण-संघ बहुत विशाल था। अनुशासन, व्यवस्था, संगठन, संचालन आदि की दष्टि से उसकी अपनी अप्रतिम विशेषताएं थीं। फलत: उत्तरवर्ती समय में भी वह समीचीनतया चलता रहा, आज भी एक सीमा तक चल रहा है। भगवान महावीर के नौ गण थे, जिनका स्थानांग-सूत्र में निम्नाङ्कित रूप में उल्लेख हआ है
"समणस्स भगवओ महावीरस्स णव गणा होत्था । तं जहा–१. गोदासगणे, २. उत्तर-बलियस्सयगणे, ३. उद्देहगणे, ४. चारणगणे, ५. उड्ढवाइयगणे,
६. विस्सवाइयगणे, ७. कामिडिढ्यगणे, ८. माणवगणे, ६. कोडियगणे।" इन गणों की स्थापना का मुख्य आधार आगम-वाचना एवं धर्मक्रियानुशीलन की व्यवस्था था। अध्ययन द्वारा ज्ञानार्जन श्रमण-जीवन का अपरिहार्य अंग है। जिन श्रमणों के अध्ययन की व्यवस्था एक साथ रहती थी, वे एक गण में समाविष्ट थे। अध्ययन के अतिरिक्त क्रिया अथवा अन्यान्य व्यवस्थाओं तथा कार्यों में भी उनका साहचर्य एवं ऐक्य था।
__गणस्थ श्रमणों के अध्यापन तथा पर्यवेक्षण का कार्य गणधरों पर था। भगवान महावीर के ग्यारह गणधर थे:
१. इन्द्रभृति, २. अग्निभूति, ३. वायुभूति, ४. व्यक्त, ५. सुधर्मा, ६. मण्डित, ७. मौर्यपुत्र, ८. अकम्पित, ६. अचलभ्राता, १०. मेतार्य, ११. प्रभास ।
इन्द्रभूति भगवान महावीर के प्रथम व प्रमुख गणधर थे। वे गौतम गोत्रीय थे, इसलिए आगमवाङमय और जैन परम्परा में वे गौतम के नाम से प्रसिद्ध हैं। प्रथम से सप्तम तक के गणधरों के अनु
१. स्थानांग सूत्र ६.२६
COAAJanasaudaramainaniBansaAcaudaaaaaaaaaaachaareeudraAILIAMGaminamasomaaaaaaaAASARABANAAD
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org