Book Title: Anandrushi Abhinandan Granth
Author(s): Vijaymuni Shastri, Devendramuni
Publisher: Maharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
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आचार्यप्रजिनाचार्य श्रीआनन्दग्रन्थश्राआनन्दा
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इतिहास और संस्कृति
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राष्ट्र में फैला। देश की चप्पा-चप्पा भूमि इस धर्म की श्रद्धा और शक्ति का आधार बनी । दक्षिणी भारत के श्रवणवेलगोला व कारकल आदि स्थानों पर स्थित बाहुबली के प्रतीक आज भी इस राष्ट्रीय चेतना के प्रतीक हैं।
जैनधर्म की यह सांस्कृतिक एकता भूमिगत ही नहीं रही। भाषा और साहित्य में भी उसने समन्वय का यह औदार्य प्रकट किया। जैनाचार्यों ने संस्कृत को ही नहीं, अन्य सभी प्रचलित लोक भाषाओं को अपना कर उन्हें समुचित सम्मान दिया । जहाँ-जहाँ भी वे गए, वहाँ-वहाँ की भाषाओं को चाहे वे आर्य परिवार की हों, चाहे द्राविड़ परिवार की-अपने उपदेश और साहित्य का माध्यम बनाया। इसी उदार प्रवृत्ति के कारण मध्ययुगीन विभिन्न जनपदीय भाषाओं के मूल रूप सुरक्षित रह सके हैं । आज जब भाषा के नाम पर विवाद और मतभेद हैं, तब ऐसे समय में जैनधर्म की यह उदार दृष्टि अभिनन्दनीय ही नहीं, अनुकरणीय भी है।
साहित्यिक समन्वय की दृष्टि से तीर्थंकरों के अतिरिक्त राम और कृष्ण जैसे लोकप्रिय चरित्र नायकों को जैन साहित्यकारों ने सम्मान का स्थान दिया । ये चरित्र जैनियों के अपने बन कर आये हैं। यही नहीं, जो पात्र अन्यत्र घणित और बीभत्स दृष्टि से विचित्र किये गये हैं, वे भी यहाँ उचित सम्मान के अधिकारी बने हैं। इसका कारण शायद यह रहा कि जैन साहित्यकार अनार्य भावनाओं को किसी प्रकार की ठेस नहीं पहुँचाना चाहते थे। यही कारण है कि वासुदेव के शत्रुओं को भी प्रति-वासुदेव का उच्च पद दिया गया है । नाग, यक्ष आदि को भी अनार्य न मानकर तीर्थंकरों का रक्षक माना है और उन्हें देवालयों में स्थान दिया है । कथा-प्रबन्धों में जो विभिन्न छन्द और राग-रागनियाँ प्रयुक्त हुई हैं उनकी तर्जे वैष्णव साहित्य के सामंजस्य को सूचित करती हैं। कई जैनेतर संस्कृत और डिंगल ग्रंथों की लोकभाषाओं में टीकाएँ लिख कर भी जैन विद्वानों ने इस सांस्कृतिक विनिमय को प्रोत्साहन दिया है।
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जैनधर्म अपनी समन्वय भावना के कारण हो सगुण और निर्गुण भक्ति के झगड़े में नहीं पड़ा। गोस्वामी तुलसीदास के समय इन दोनों भक्ति धाराओं में जो समन्वय दिखाई पड़ता है उसके बीज जैन भक्तिकाव्य में आरम्भ से मिलते हैं। जैन दर्शन में निराकार आत्मा और वीतराग साकार भगवान के स्वरूप में एकता के दर्शन होते हैं । पंचपरमेष्ठी महामंत्र (णमो अरिहंताणं, णमो सिद्धाणं आदि) में सगुण और निर्गुण भक्ति का कितना सुन्दर मेल बिठाया है। अर्हन्त साकार परमात्मा कहलाते हैं । उनके शरीर होता है वे दिखाई देते हैं । सिद्ध निराकार हैं, उनके कोई शरीर नहीं होता, उन्हें हम देख नहीं सकते। एक ही मंगलाचरण में इस प्रकार का समभाव कम देखने को मिलता है।
जैन कवियों ने काव्य-रूपों के क्षेत्र में भी कई नये प्रयोग किये। उसे संकीर्ण परिधि से बाहर निकाल कर व्यापकता का मुक्त क्षेत्र दिया । आचार्यों द्वारा प्रतिपादित प्रबन्ध-मुक्तक की चली आती हुई काव्य-परम्परा को इन कवियों ने विभिन्न रूपों में विकसित कर काव्यशास्त्रीय जगत में एक क्रांति-सी मचा दी। दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि प्रबन्ध और मुक्तक के बीच काव्य-रूपों में कई नये स्तर इन कवियों ने निर्मित किये।
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