Book Title: Anandrushi Abhinandan Granth
Author(s): Vijaymuni Shastri, Devendramuni
Publisher: Maharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
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SANJIVA
आचार्यप्रवआभापार्यप्रकट श्रीआनन्दग्रन्थ श्रीआनन्दा
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इतिहास और संस्कृति
के लिए हाथों में बल दिया। जड़ संस्कृति को कर्म की गति दी चेतनाशून्य जीवन को सामाजिकता का बोध और सामूहिकता का स्वर दिया । पारिवारिक जीवन को मजबूत बनाया, विवाह प्रथा का समारम्भ किया । कला-कौशल और उद्योग-धन्धों की व्यवस्था कर निष्क्रिय जीवन-यापन की प्रणाली को सक्रिय और सक्षम बनाया। संस्कृति का परिष्कार और महावीर :
अन्तिम तीर्थंकर महावीर तक आते-आते इस संस्कृति में कई परिवर्तन हुए । संस्कृति के विशाल सागर में विभिन्न विचारधाराओं का मिलन हुआ। पर महावीर के समय इस सांस्कृतिक मिलन का कत्सित और बीभत्स रूप ही सामने आया। संस्कृति का जो निर्मल और लोककल्याणकारी रूप था, वह अब विकारग्रस्त होकर चन्द व्यक्तियों की ही सम्पत्ति बन गया । धर्म के नाम पर क्रियाकाण्ड का प्रचार बढ़ा । यज्ञ के नाम पर मूक पशुओं की बलि दी जाने लगी । अश्वमेध ही नहीं, नरमेध भी होने लगे । वर्णाश्रम व्यवस्था में कई विकृतियाँ आ गईं । स्त्री और शूद्र अधम तथा निम्न समझे जाने लगे। उनको आत्म-चिन्तन और सामाजिक-प्रतिष्ठा का कोई अधिकार न रहा । त्यागी-तपस्वी समझे जाने वाले लोग अब लाखों करोड़ों की सम्पत्ति के मालिक बन बैठे । संयम का गला घोंटकर भोग और ऐश्वर्य किलकारियाँ मारने लगा। एक प्रकार का सांस्कृतिक संकट उपस्थित हो गया। इससे मानवता को उबारना आवश्यक था।
वर्द्धमान महावीर ने संवेदनशील व्यक्ति की भाँति इस गम्भीर स्थिति का अनुशीलन और परीक्षण किया। बारह वर्षों की कठोर साधना के बाद वे मानवता को इस संकट से उबारने के लिए अमत ले आये। उन्होंने घोषणा की—सभी जीव जीना चाहते हैं, मरना कोई नहीं चाहता। यज्ञ के नाम पर की गई हिंसा अधर्म है। सच्चा यज्ञ आत्मा को पवित्र बनाने में है। इसके लिए क्रोध की बलि दीजिए, मान को मारिये, माया को काटिये और लोभ का उन्मूलन कीजिये । महावीर ने प्राणी-मात्र की रक्षा करने का उद्बोधन दिया । धर्म के इस अहिंसामय रूप ने सस्कृति को अत्यन्त सूक्ष्म और विस्तृत बना दिया। उसे जनरक्षा (मानव-समुदाय) तक सीमित न रख कर समस्त प्राणियों की सुरक्षा का भार भी संभलवा दिया। यह जनतंत्र से भी आगे प्राणतंत्र की व्यवस्था का सुन्दर उदाहरण है।
जैन धर्म ने सांस्कृतिक विषमता के विरुद्ध अपनी आवाज बुलन्द की, वर्णाश्रम व्यवस्था की विकृति शुद्धिकरण किया । जन्म के आधार पर उच्चता और नीचता का निर्णय करने वाले ठेकेदारों को मुंहतोड़ जवाब दिया । कर्म के आधार पर ही व्यक्तित्व की पहचान की। हरिकेश चाण्डाल और सद्दालपुत्र कुम्भकार को भी आचरण की पवित्रता के कारण आत्म-साधकों में समुचित स्थान दिया।
अपमानित और अचल सम्पत्तिवत मानी जाने वाली नारी के प्रति आत्म-सम्मान और गौरव की भावना जगाई। उसे धर्म ग्रंथों को पढ़ने का ही अधिकार नहीं दिया वरन् आत्मा के चरम-विकास मोक्ष की भी अधिकारिणी माना । श्वेताम्बर परम्परा के अनुसार इस युग में सर्वप्रथम मोक्ष जाने वाली ऋषभ की माता मरूदेवी ही थी । नारी को अबला और शक्तिहीन नहीं समझा गया। उसकी आत्मा में भी उतनी ही शक्ति सम्भाव्य मानी गई जितनी पुरुष में । महावीर ने चन्दनबाला की इसी शक्ति को पहचान
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